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६६१३२ बार से अधिक जन्म नहीं ले सकता। इसी तरह द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक उपर बताये हुये अंकों के अनुसार समझना। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जो २४ बार जन्म बताये हैं, उसमें भी मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त में आठ बार, असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक में आठ बार और संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक में आठ बार इस तरह कुल मिलाकर पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक में २४ बार निरन्तर जन्म लेता है। इससे अधिक नहीं ले सकता।
एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के निरन्तर क्षुद्र भवों की संख्या जो ६६१३२ बतलाई है उसका विभाग स्वामीकुमार के अनुसार इस प्रकार है- ११७ पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और साधारण वनस्पतिकाय ये पांचों बादर और सूक्ष्म के भेद से १० भेद होते हैं। उनमें प्रत्येक वनस्पति को मिलाने से ग्यारह होते हैं। इन ग्यारह प्रकार के लब्थ्यपर्याप्तकों में से एक-एक भेद में ६०१२ निरन्तर क्षुद्र भव होते हैं और मरते भी उतने ही बार हैं। इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्तकाल में लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बार जन्म-मरण करता है। जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाता है और एक भी पर्याप्ति को समाप्त नहीं कर पाता, उसे लब्ब्यपर्याप्त कहते हैं।११८ यह तो बात लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की हुई। किन्तु एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक संज्ञी असंज्ञी भवों में भी जीवात्मा ने असंख्यात एवं अनन्तानन्त बार जन्म मरण का दुःख भोगा है। पंचेन्द्रिय में भी नरक गति का दुःख भयंकर है। नारकों में तीन प्रकार की वेदनाएं होती हैं- १. क्षेत्र स्वभावजन्य, २. परस्परजन्य तथा ३. उत्कटअधर्मजनित। सातों नारकों की वेदना उत्तरोत्तर तीव्र होती है। प्रथम के तीन नारकों में परमाधामी देव हैं। वे नारकी के जीवों को उत्कट अधर्मजनित वेदनाएं देते हैं। परमाधामी असुरजाति के देव हैं। उनका स्वभाव क्रूर होता है। वे अंब, अम्बरीष, श्याम, शबल, रौद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुषपत्र, कुम्भी, बालुका, वैतरणी, खरस्वर, तथा महाघोष नामवाले पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव हैं। वे कुतुहल प्रिय होने के कारण अपने अपने नामानुसार अनेक प्रकार के प्रहारों से, तीर, बी, तलवार, हथोड़ा, अस्त्र, शस्त्र, द्वारा छेदन, भेदन, छीलन, काटना, मारना, एवं परस्पर कुत्तों, भैसों, मल्लों की तरह लड़ाने में आनंद मनाते हैं। नारकी जीवों को परस्पर लड़ाना, तप्त लोहे का रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लोहस्तम्भ का आलिंगन कराना, कूट और सेमर के वृक्ष पर चढ़ाना, तेल की कढ़ाई में पकाना, भांड की भांती कढई में मूंजना, वैतरणी नदी में डुबाना, यंत्र से पिलना, असिवन की छाया में बिठाना, असिपत्र से शरीर को छिन्नभिन्न करना आदि अनेक प्रकार की भयंकर वेदनाएं नारकी जीवों को परमाधामी देव देते रहते हैं। शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी नारकीय जीवों की अकाल में मृत्यु नहीं होती, उनकी आयु नहीं घटती; क्योंकि वे अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं। क्षेत्रस्वभाव जन्य और परस्पर जन्य वेदनाएं तो सातों ही नरकभूमि में
ध्यान के विविध प्रकार
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