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संसारानुप्रेक्षा - चतुर्विध गति में परिभ्रमण करानेवाले जन्म मरण रूप चक्र को संसार कहते हैं। जीव संसार दुर्गम वन में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव से ग्रसित पंच संसार में मिथ्यात्व के तीव्रोदय से दुःखित होकर परिभ्रमण करता रहता है। सुई की नोंक जितनी भी जगह लोकाकाश की शेष नहीं रही जहाँ जीवात्मा ने जन्म न लिया हो। जो चार गतिरूप संसार में परवशतावश परिभ्रमण करता है, वह संसार है, उसका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। निगोद के जीवों की वेदना अपरम्पार है। एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं। इस योनि में अनन्तानन्त काल व्यतीत करते हैं। जन्म मरण की भयंकर वेदना पृथ्व्यादि योनि में भी नहीं है। एक शरीर में अनन्त जीव किन्तु वे अपनी-अपनी वेदना का अनुभव भिन्न-भिन्न करते हैं। एक श्वासोच्छ्वास में निश्चित रूप से कुछ अधिक सत्रह क्षुद्र भव
और एक मुहूर्त में सैंतीस सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास होते हैं। तथा एक मुहूर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस क्षुद्रभव होते हैं। और एक क्षुद्रभव में दो सौ छप्पन आवली होती है। अर्थात् एक मुहूर्त में श्वासोच्छ्वास की संख्या मालूम करने के लिये एक मुहूर्त ४२घटिका x ३७।। लव, ७ उच्छ्वास, इस प्रकार सबको गुणा करने पर ३७७३ संख्या आती है, तथा एक मुहूर्त में एक निगोदिया जीव ६५५३६ बार जन्म लेता है, जिससे ६५५३६ में - ३७७३ से भाग देने पर १७६७७१ लब्ध आता है, अतः एक श्वासोच्छ्वास काल में सत्रह से कुछ अधिक क्षुद्र भवों का प्रमाण जानना चाहिये। १९५ एक क्षुद्र भव में दो सौ छप्पन आवली होती है। दिगम्बर साहित्य में११६ एक श्वासोच्छ्वास काल में १८ क्षुल्लक भव माने हैं। एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में निरन्तर जन्म मरण का कालमान 'लब्ध्यपर्याप्तक जीव एक अर्मुहूर्त में ६६३३६ बार मरण कर उतने ही भवों-जन्मों को भी धारण करता है। अतः एक अन्तमुहूर्त में ६६३३६ क्षद्र भव होते हैं। इन भवों को क्षुद्र भव इसीलिये कहते हैं कि इनसे अल्पस्थिति वाला अन्य कोई भी भव नहीं पाया जाता है। इन भवों में से प्रत्येक का कालप्रमाण श्वास का अठारहवां भाग है। फलतः त्रैराशिक के अनुसार ६६३३६ भवों के श्वासों का प्रमाण ३६८५११३ होता है। इतने उच्छ्वासों के समूह प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में पृथ्वीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के क्षुद्र भव ६६३३६ हो जाते हैं। ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है तथा इन ६६३३६ भवों में से द्वीन्द्रिय के ८०, त्रीन्द्रिय के ६०, चतुरिन्द्रिय के ४०, पंचेन्द्रिय के २४ और एकेन्द्रिय के ६६१३२ क्षुद्र भव होते हैं। कोई एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भव के प्रथम समय से लेकर उच्छ्वास के अठारहवें भाग प्रमाण अपनी आयु पूरी करके पुनः एकेन्द्रिय पर्याय में ही उत्पन्न हुआ और उच्छ्वास के अठारहवें भाग काल तक जीकर मर गया और पुनः एकेन्द्रियपर्याय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यदि निरन्तर वह एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त में ही बार-बार जन्म लेता है तो ३९२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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