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अनित्यानुप्रेक्षा - संसार में दृश्यमान दुःख, क्लेश, भय, चिन्ता, शोक आदि की जनिता 'मोह' है। मोह एवं मतिभ्रम के चक्रव्यूह को तोड़ने का उपक्रम भावना ही है। संसार में जितने भी मनमोहक पौद्गलिक पदार्थ हैं वे सब अनित्य एवं नश्वर हैं। माता, पिता, परिवार, शरीर, धन, धान्य, वैभव, ज्ञातिजन, बन्धुजन, मित्रगण एवं सुर, असुर, देव, दानव, मानव, चक्रवर्ती आदि सब का धन, ऐश्वर्य, आयु, बल, इन्द्रधनुष, बिजली, नदी की लहरें, इन्द्रजाल वत् क्षणिक एवं नाशवान हैं। पक्षीगण की भाँति ही प्राणी आयु पूर्ण होने पर कर्मानुसार संसार में परिभ्रमण करता है। भौतिक सुख, शरीर सुख, इन्द्रिय सुख क्षण-क्षण में अनित्यता में परिणत होने वाले हैं। रागद्वेषादि विकल्पों से निर्मित अशुभ पदार्थ शुभ में और शुभ पदार्थ अशुभ में सतत परिणमन स्वभाव वाले होते हैं। इसलिये अनित्यादि वस्तुओं में आसक्त न बनें। वैषयिक सुख इन्द्रियजनिक विषय भोग किंपाक की तरह मधुर भाषित होते हैं। किन्तु वे सब मेघपटल की तरह अनित्य हैं, कच्चे घड़े की तरह क्षणिक हैं और मार्गपथिक की तरह क्षण विनाशक हैं। मन को इन सब से विमुख बनाना ही उत्तम सुख पाना है। संसार में उत्पन्न सभी वस्तुएँ पर्यायरूप से नाशवान हैं, अनित्य हैं। भरत चक्रवर्ती ने अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तन किया तो केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया । अतः संसार के प्रत्येक वस्तु एवं पदार्थ की अनित्यता का चिंतन करना ही अनित्यानुप्रेक्षा है। एकमात्र आत्मा ही सत् चिदानंदमय स्वरूप वाली है। ११३ इस प्रकार का चिन्तन करना ही 'अनित्यानुप्रेक्षा' है।
अशरणानुप्रेक्षा : संसार में जो वस्तु अनित्य, क्षणिक और नाशवान हैं वे सभी अशरणरूप हैं। जन्म, जरा, मरण, व्याधि, उपाधि से पीड़ित जीवों का इस संसार में कोई शरणरूप नहीं है। धन, परिवार, कुटुम्ब, इन्द्र, उपेन्द्र, देव, वासुदेव, माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, पत्नी आदि कोई भी मृत्यु से बचा नहीं सकते। सिंह के मुख से मृग को कोई नहीं बचा सकता; वैसे ही काल के मुख से ये कोई भी वस्तुएं बचा नहीं सकतीं। इतना तो क्या? प्रबल मिथ्यात्व के वशीभूत मानव प्राणी, यक्ष, भूत, राक्षस, ग्रह, नक्षत्र, पिशाच, योगिनी, शाकिनी, यंत्र, मंत्र, तंत्र, को शरण रूप मानने पर भी वे भी उसे शरणभूत नहीं हैं। बलशाली हाथी, घोड़े, रथ, पायदल, सेना आदि भी रक्षक नहीं हैं। चन्द्रमा जब ग्रह से पीड़ित होता है, तो उसकी कौन रक्षा करता है? आत्मा का यदि कोई रक्षक है तो जिनेन्द्र का प्रवचन ही शरणभूत है। सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही शरणरूप है। धर्म का शरण लेना, ममता का त्यागना और शिवसुख पाना ही जीवन में सच्चा शरण है। शेष अशरणरूप हैं। इस प्रकार आत्मा के त्राण के अभाव का चिन्तन करना ही 'अशरणानुप्रेक्षा' है । ११४
ध्यान के विविध प्रकार
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