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________________ इस प्रकार १०० + १००+ ० ० + ४६ + १८४ = ५३० भेद रूपी अजीव के हुए। धर्मध्यान के चार लक्षण : आगम ग्रन्थों में धर्मध्यान के चार लक्षण कहे हैं। १०१ १. आज्ञारुचि जिनकथित जीवादिपदार्थों के अर्थ जानने की रुचि रखना । २. निसर्गरुचि = स्वाभाविक क्षयोपशम से तत्त्व में रुचि जागना। ३. सूत्ररुचि = जिनोक्त द्रव्यादि पदार्थों को जानने की रुचि जागना । ४. अवगाढरुचि = जिनागमानुसार देशना श्रवण करने से उत्पन्न होने वाली रुचि । इनके अतिरिक्त अन्य भी लक्षण मिलते है११० देव, गुरु, धर्म की स्तुति करना, गुणियों के गुणों का कथन करना, विनय, नम्रता, तप, जप, संयमादि, गुणों से विभूषित, सुपात्रदान की भावना जागना, ये सभी धर्मध्यान के लक्षण हैं। इन सबके मूल में श्रद्धा है। श्रद्धा ही धर्मध्यान का मूल है। धर्मध्यान के चार आलंबन : आगम में चार प्रकार के आलंबन बताये गए हैं- १११ १. वाचना - गणधर रचित सूत्रों की योग्य शिष्य को वाचना देना, सूत्र दान देना या पढ़ाना। इसके आलंजन से एकाग्रता बढ़ती है। २. पृच्छना - सूत्र पाठ में कहीं शंका हो तो गुरु समीप जाकर विनयपूर्वक प्रश्न = पूछना । ३. परियट्टना (परिवर्तन) - पढ़े हुये सूत्रार्थ ज्ञान में भूल न हो; इस लिये पुनः पुनः परावर्तन (पुनरावृत्ति) करना, जिससे एकाग्रता में वृद्धि होती है। ४. अनुप्रेक्षा ( धर्म कथा) आगम में अनुप्रेक्षा और धर्मकथा दोनों ही शब्द मिलते हैं। पढ़े हुए ज्ञान का विस्मरण न हो, इसलिये उसका बार बार चिन्तन करना अथवा दूसरों को धर्मोपदेशना देना। धर्मकथा के चार प्रकार हैं - १. आक्षेपिनी कथा = रागादि भावों से विमुख करके सत्य तत्त्वों के सन्मुख लाने वाली कथा | २. विक्षेपणी कथा = कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लाने वाली कथा । ३. संवेगनी कथा = वैराग्य भावना बढ़ाने वाली कथा । ३९० - ४. , निवेंदनी कथा = संसार में उदासीन बनाने वाली कथा | इन चारों के आलम्बन से मन एकाग्र होने पर वह धर्म ध्यान पर चढ़ सकता है। धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा : भावना और अनुप्रेक्षा में अन्तर है। अनुप्रेक्षा में पुनः पुनः तत्त्वों का गहराई से चिन्तन किया जाता है; जब कि भावना में इतनी गहराई नहीं होती। आगमकथित आज्ञा अपाय आदि ध्यान के प्रकारों से मन विचलित होने पर अनित्यादि वैराग्यजनक अनुप्रेक्षाओं का शरण लिया जाता है। आगम कथित चार अनुप्रेक्षा हैं - ११२ अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा । जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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