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सम्मच्छिम मनुष्य गर्भन मनुष्य के १०१ क्षेत्र में निम्न १४ स्थानों में उत्पन्न होते हैं
१) उच्चार-विष्ठा में, २ पासवण-मूत्र में, ३) खेल-खेंकार में, ४) संघाणश्लेष्म, नाक के मेल में, ५) वंत-वमन (उल्टी) में, ६) पित्त, ७) पुश्य-रस्सी, पीप में, ८) सोणिय-रुधिर (रक्त) में, ९) सुक्क-वीर्य में, १०) सुक्क पोग्गल परिसाहित्यवीर्य के सूखे पुद्गल पुनः गीले हों उसमें, ११) विगयजीव कलेवर-मनुष्य के मृतक शरीर में, १२) इत्थीपुरिस संजोग-स्त्री-पुरुष के संयोग में, १३) नगर णिद्ध मणियानगर के गटर आदि में, १४) सव्व असुइ ठाणाई-सभी मनुष्य संबंधी अशुचि स्थानों में।
- इस प्रकार १५+३०+५६% १०१ x २ (पर्याप्त, अपर्याप्त) = २०२. सम्मूच्छिम मनुष्य के अपर्याप्त १०१ कुल ३०३ भेद मनुष्य के हुए।
(ग) देवता के १९८ भेद - देवता के मुख्यतः चार भेद हैं - १. भवन पति, २. वाणव्यंतर, ३. ज्योतिषि, ४. वैज्ञानिक.
१) भवन पति के पचीस भेद- (अ) १० असुरकुमार और (आ) १५ परमाधामी __ अ) १० असुरकुमार- १) असुरकुमार, २) नामकुमार, ३) सुवर्णकुमार, ४) विद्युतकुमार, ५) अग्निकुमार, ६) द्वीपकुमार, ७) दधिकुमार, ८) दिशाकुमार, ९) पवनकुमार, १०) स्तनितकुमार.
__ आ) १५ परमाधामी- १) आम (अम्ब), २) अंबरीष, ३) श्याम, ४) सबल, ५) रौद्र, ६) महारुद्र, ७) काल, ८) महाकाल, ९) असिपत्र, १०) धनुष, ११) कुंभ, १२) बालुका, १३) वैतरणी, १४) खरस्वर, १५) महाघोष
२)वाणव्यंतर के २६ भेद - अ)१६ व्यंतर, आ)१० त्रिजृम्भक
अ)१६ व्यंतर- १) पिशाच, २) भूत, ३) यक्ष, ४) राक्षस, ५) किन्नर, ६) किंपुरुष, ७) महोरग, ८) गंधर्व, ९) आणपन्ने, १०) पाणपन्ने, ११) इसिवाई, १२) भूयवाई, १३) कंदिय, १४) महाकंदिय, १५) कोहंड, १६) पयंगदेव
आ) १० त्रिजृम्भक - १) अनजृम्भक, २) पानजृम्भक, ३) लयनजृम्भक, ४) शयनजृम्भक, ५) वस्त्रजृम्भक, ६) फलजृम्भक, ७) पुष्पजृम्भक, ८) फलपुष्पजृम्भक, ९) विद्याजृम्भक, १०) अग्निजृम्भक
३) ज्योतिषि के १० भेद - १) चन्द्र, २) सूर्य, ३) ग्रह, ४) नक्षत्र, ५) तारा ये ५ चर और ये ५ अचर - कुल दस भेद हुए।
४) वैमानिक के ३८ भेद - अ) ३ किल्बिषी, आ) १२ देवलोक, इ) ९ लोकान्तिक, ई) ९ प्रैवेयक, उ) ५ अनुत्तर विमान। ___ अ) किल्बिषी ३ - १) तीन पालिया (त्रिपल्योपमिक), २) तीन सागरिया (सागरिक), ३) तेरा सागरिया (त्रयोदश सागरिक)
आ) देवलोक १२ - १) सौधर्म, २) ईशान, ३) सनत्कुंभार, ४) माहेन्द्र, ५) ब्रह्मलोक, ६) भातंक, ७) शुक्र, ८) सहस्रार, ९) आनत, १०) प्राणत, ११) आरण, १२) अच्युत
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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