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________________ प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव बादर ही होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय के चौदह भेद हुए। तीन विकलेन्द्रिय के तीन भेद और कर्म भूमियाँ जलचर, थलचर और नभचर ये तीनों तिथंच पंचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी के भेद से छह प्रकार के हैं। १४+३+६=२३ भेद सम्मूर्छिम तिर्यचों के होते हैं। ये २३ प्रकार के सम्मच्छिम तिर्यच भी तीन प्रकार के होते हैं - पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त। २३ को तीन से गुणा करने पर सब सम्मच्छिम तिर्यंच के ६९ भेद होते हैं। इनमें गर्भज तिर्यचों के १६ भेद मिलाने से सब तिर्यंचों के ६९+१६८५ भेद होते हैं। मनुष्य के ३०३ भेदः मनुष्य दो प्रकार के हैं।०५ १. सम्मूर्छिम और २. गर्भन। उनमें गर्भन मनुष्य के तीन प्रकार हैं - १०६ १. कर्मभूमि, २. अकर्मभूमि और ३. अन्तीप। १५ कर्मभूमि ः जिस भूमि के मनुष्य असि (शस्त्रों), मसि (श्याई), कसि (कृषिखेत) से जीवन व्यवहार चलाते हैं; विशेषतः उस भूमि के जीव मोक्ष मार्ग का रहस्य समझकर संयमादि दस धर्मों में प्रवृत्ति करते हैं। उसे कर्म भूमि कहते हैं। तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, वासुदेव, बलदेव, आदि ६३ शलाका महापुरुषों की जन्मभूमि एवं साधक आत्माओं को मोक्ष भी इसी भूमि से प्राप्त होता है। १५ कर्मभूमियाँ हैं - १०७ जम्बद्वीप में १ भरत, १ ऐरावत और १ महाविदेह, धातकीखण्ड द्वीप में भरत, ऐरावत, महाविदेह, दुगुने हैं और अर्धपुष्करवरद्वीप में भरतादि दुगुने हैं = इस प्रकार ढाई द्वीप के कुल ३+६+६=१५ कर्मभूमि हैं। इन्हीं ढाई द्वीप में मनुष्य पैदा होते हैं। इसलिये इसे मनुष्य क्षेत्र भी कहते हैं। ३० अकर्म भूमि : (क) जिस भूमि के मनुष्य असि, मसि, कसि आदि कर्मों की प्रवृत्ति न करके सिर्फ दस कल्पवृक्षों से अपना निर्वाह चलाते हैं, उन्हें अकर्मभूमि (भोगभूमि) कहते हैं। अकर्मभूमि तीस हैं - जम्बूद्वीप में १ देवकुछ, १ उत्तरकुरु, १हरिवास, १ रम्यकवास, १ हेमवय और १ हिरण्यवय ऐसी छह भूमियाँ हैं। इससे दुगुने घातकी खंड द्वीप में और उतने ही अर्धपुष्करवरद्वीप में है। कुल ढाई द्वीप में ६+१२+१२=३० अकर्मभूमि है। (ख) ५६ अंतर्दीप और (ग) १९८ देवता के भेद । (ख) अन्तद्वीप के ५६ भेद इस प्रकार हैं - जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र की मर्यादा करनेवाला चूल हेमवंत पर्वत और ऐरवत क्षेत्र की मर्यादा करनेवाला शिखरी पर्वत, इन दोनों पवतों में से ४-४ दाढाएँ (शाखाएँ) पूर्व पश्चिम के लवण समुद्र में गईं। एक एक दाढा पर ७-७ अन्तद्वीप हैं। इस प्रकार ७ अन्तद्वीप x ८ शाखा = ५६ अन्तर्दीप हैं। अतः १५+३०+५६-१०१ संज्ञी मनुष्य। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त याने २०२ भेद हुए। ध्यान के विविध प्रकार ३८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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