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________________ तिर्यच जीवों में से किन्हीं को एक, दो, तीन, चार, या पांच इन्द्रियाँ होती हैं। इन एक से लेकर पांच इन्द्रिय तक के जीवों में से द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय वाले जीव तो अपने हिताहित की प्रवृत्ति -निवृत्ति के निमित्त हलन-चलन करने में समर्थ हैं, लेकिन एकेन्द्रिय वाले असमर्थ हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मन नहीं होने से असंज्ञी तथा पंचेन्द्रिय वाले तिर्यच जीवों में भी कोई मन सहित और मनरहित होता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के संज्ञी और असंज्ञी की अपेक्षा दो प्रकार हो जाते हैं। - संज्ञा शब्द के तीन अर्थ है - १. नामनिक्षेप, २. आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा और ३. धारणात्मक या ऊहापोह रूप विचारात्मक ज्ञान विशेष। जीवों के संज्ञित्व और असंज्ञित्व के विचार करने के प्रसंग में संज्ञा का आशय नामनिक्षेपात्मक न लेकर मानसिक क्रिया विशेष लिया जाता है। नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है। तियंचगति के जीवों की संख्या आगमानुसार ४८ है। ५ स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय के भेद ऊपर कह दिये हैं। तिर्यंचपंचेन्द्रिय के २० भेदों का वर्णन कर रहे हैं।१०३ तिर्यंच पंचेन्द्रिय दो प्रकार के हैं - १. सम्मच्छिम और २. गर्भनतिर्यंचपंचेन्द्रिय। इन दोनों प्रकार के जीवों के तीन-तीन भेद हैं - १. जलचर (मस्त्य, मगरमस्त्य, वगैरह) २. स्थलचर - १) चतुष्पद (गाय भैंस बैल हाथी घोड़ा) और २) परिसर्पi) उरपरिसर्प (सर्प, अजगर आदि) और ii) भुजपरिसर्प (बंदर, नोलिया, खिसकोली, गिरोली आदि) और ३. नभचर। अर्थात् जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प इन पांच भेद के संज्ञी असंज्ञी से दस भेद होते हैं। इन दस के पर्याप्त अपर्याप्त भेद से तिर्यचपंचेन्द्रिय के २० भेद होते हैं। तिर्यच के ४८ भेद इस प्रकार हैं - २२+६+२०४८ (ए.)(वि.)(पं.) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में तिर्यंचों के ८५ भेदों का वर्णन है-१०४ मुख्यतः तिर्यच जीवों के तीन भेद हैं - जलचर, थलचर, और नभचर। ये तीनों ही संज्ञी-असंज्ञी के भेद से ६ प्रकार के हैं। ये छः भेद कर्मभूमि के गर्भज तिर्यच के हैं। भोगभूमि के तिर्यच गर्भज जन्मवाले ही होते हैं तथा थलचर और नभचर ही होते हैं; जलचर नहीं। इस प्रकार आठों ही कर्मभूमियां और भोग भूमियाँ गर्भज तिर्यच पर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त होते हैं। अतः गर्भज तिर्यचों के सोलह भेद होते हैं। तथा सम्मूच्छिम तिर्यंचों के तेईस भेद होते हैं - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, बादर वायुकायिक, सूक्ष्म नित्यनिगोद साधारण वनस्पतिकायिक, बादर नित्यनिगोद साधारण वनस्पति कायिक, सूक्ष्म चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, बादर चतुर्गति निगोद साधारण वनस्पतिकायिक, तथा प्रत्येक सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक और अप्रतिष्ठित ३८६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For.Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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