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(५) विधानप्रकार : इसमें छ द्रव्यों के अवांतर भेदों का चिन्तन किया जाता है। सर्वज्ञ भगवान महावीर ने दो प्रकार की राशि का वर्णन किया है । ९६ जीव राशि और अजीव राशि। उनमें जीवराशि के आगमानुसार ५६३ भेद और अजीवराशि के ५६० हैं। जीव के संक्षेप में चौदह भेद और विस्तार से ५६३ हैं। जिनका कथन निम्नलिखित है
इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय ये सातों अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो-दो प्रकार के होने से जीव (भूत स्थान, जीवस्थान) के चौदह भेद हैं । ९७ ये चौदह भेद संसारी जीवों के हैं। जीवत्व - चैतन्यरूप सामान्य धर्म की समानता होने के कारण अनन्त जीव समान एक जैसे हैं। सभी के गुण, धर्म समान होने से उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। कर्मबद्ध संसारी जीवों में ही पाँच जातियों के रूप में विभिन्न भेद किये गये हैं । संसारी जीवों की पाँच जातियाँ हैं । ९८ १. एकेन्द्रिय, २. द्वीन्द्रिय, ३. त्रीन्द्रिय, ४. चतुरिन्द्रिय, ५. पंचेन्द्रिय । जाति का अर्थ सामान्य- जिस शब्द के बोलने या सुनने से सभी समान गुण - धर्म वाले पदार्थों का ग्रहण हो जाये। एकेन्द्रिय वाले जीव स्थावर तथा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के जीव त्रस कहलाते हैं।
जीव के ५६३ भेद : एकेन्द्रिय जीवों के पांच प्रकार हैं तथा उन पांच के २२ भेद
हैं- ९९
१. पृथ्वीकाय : पृथ्वी ही काया है जिनकी ऐसे जीव : यथा नाना प्रकार के रत्नों, विभिन्न धातुएँ, मिट्टी, पाषाण, नमक, खार, फिटकड़ी, हिंगलोक, पखाला, हड़ताल, पारा, मणसिल, सुरमा, कंकड़ आदि विभिन्न प्रकार हैं। सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के हैं। ये दोनों पर्याप्ता और अपर्याप्ता नाम से दो-दो प्रकार के हैं। कुल पृथ्वीकाय के चार भेद हैं।
२. अप्काय : जल ही है काया जिनकी ऐसे जीव -जैसे, नदी, कुंआ, सरोवर, समुद्र आदि का जल, घनोदधि, पांचों रंग का पानी। इसके सूक्ष्म और बादर दो भेद हैं। इन दोनों भेदों के पर्याप्ता और अपर्याप्ता ऐसे कुल चार भेद हैं।
३. तेजस्काय : (अग्नि) अग्नि ही है काया जिसकी ऐसे जीव, जैसे अंगारे, ज्वाला, तृणाग्नि, काष्ठाग्नि, उल्कापाताग्नि, दीपक, बिजली आदि की अग्नि । इसके दो भेद हैं। सूक्ष्म और बादर । इन दोनों के पर्याप्ता और अपर्याप्ता ऐसे दो भेद हैं। कुल चार भेद हैं।
४. वायुकाय: पवन ही है काया जिसकी ऐसे जीव
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यथा उद्भ्रामक वायु,
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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