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लोक की उक्त लंबाई-चौड़ाई आदि का सारांश यह है कि नीचे जहां सातवा नरक है, वहाँ सात राजू चौड़ा है और वहां से घटता-घटता सात राजू ऊपर आने पर जहां पहला नरक है, वहाँ एक राजू चौड़ाई है। उसके बाद क्रमशः बढ़ते बढ़ते पांचवे देवलोक के पास चौड़ाई पांच राजू और उसके बाद क्रमशः घटते-घटते अंतिम भाग में एक राजू चौड़ाई है। संपूर्ण लोक की लंबाई-चौड़ाई चौदह राजू और अधिकतम चौड़ाई सात राजू तथा जघन्य चौड़ाई एक राजू है।
यह लोक त्रस और स्थावर जीवों से खचाखच भरा हुआ है। त्रस जीव तो त्रसनाड़ी में ही रहते हैं, लेकिन स्थावर जीव त्रस और स्थावर दोनों ही नाड़ियों में रहते हैं।९१ लोक के ऊपर से नीचे तक चौदह राजू लंबे और एक राजू चौड़े ठीक बीज के आकाश प्रदेशों को सनाडी कहते हैं और शेष लोक स्थावर नाड़ी कहलाता है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार में त्रसनाली की उपमा वृक्ष के सार (छाल वगैरह) के मध्य में रहनेवाली लकड़ी से दे दी है।९२ उद्खल (कोशार्थ-ओखली, जूगुलवृक्ष) के बीच में छेद करके उसमें रखी हुई बांस की नली के समान लोक के मध्य में चौकोर त्रसनाड़ी है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति ३ में इसका विशेष कथन किया गया है - 'वृक्ष में उसके सार की तरह , लोक के ठीक मध्य में एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊंची त्रसनाली है।'
लोक की ऊंचाई चौदह राजू है। उतनी ही ऊंचाई त्रसनाली की होनी चाहिये। किन्तु उसमें से सातवें नरक के नीचे एक राज में निगोदिया जीव रहते हैं। अतः एक राजू कम होने से १३ राजू रहते हैं। उनमें भी सातवीं पृथ्वी के मध्य में ही नारकी रहते हैं, नीचे के ३९९९१४३ योजन प्रमाण पृथ्वी में कोई त्रस नहीं रहता है। तथा ऊर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्धि विमान तक ही त्रस जीव रहते हैं। सर्वार्थसिद्धि से ऊपर के क्षेत्र में कोई त्रस जीव नहीं रहता है। अतः सर्वार्थसिद्धि से लेकर आठवीं पृथ्वीतल का अन्तराल १२ योजन, आठवीं पृथ्वी की मोटाई ८ योजन और आठवीं पृथ्वी के ऊपर ७५७५ धनुष प्रमाण क्षेत्र त्रस जीवों से शून्य है। अतः नीचे और ऊपर के उक्त धनुषों से कम १३ राजू प्रमाण त्रसनाड़ी में ही त्रसजीव जानने चाहिये।९४ परंतु कहीं कारणों से त्रसजीव त्रसनाड़ी के बाहर भी पाये जाते हैं।९५
इस चौदह राजू ऊंचे तथा अधिकतम सात राजू और न्यूनतम एक राजू लंबे-चौड़े लोक की घनाकार कल्पना की जाय तो सात राजू ऊंचाई, सात राजू लंबाई तथा सात राजू चौड़ाई होगी। क्योंकि लोक के एक-एक राजू प्रमाण टुकड़े किये जाय तो ३४३ होते हैं। उनमें से अधोलोक के १९६ और ऊर्ध्वलोक के १४७ घनराजू हैं और इनका घनमूल ७ होता है। अतः घनीकृत लोक का प्रमाण सात राजू है और घनराजू ३४३ होते हैं। ध्यान के विविध प्रकार
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