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________________ जमीन पर एक सकोरा उलटा, उस पर दूसरा सकोरा सीधा और उस पर तीसरा सकोरा उलटा रखने से जो आकार बनता है, वह सुप्रतिष्ठित संस्थान कहलाता है और यही आकार लोक का है।८७ ___अनेक आचार्यों ने८८ लोक का आकार विभिन्न रूपकों द्वारा भी समझाया है। जैसे कि लोक आकार कटिप्रदेश पर हाथ रखकर तथा पैरों को पसारकर नृत्य करने वाले पुरुष के समान है। इसलिए लोक को पुरुषाकार की उपमा दी है। कहीं-कहीं वेत्रासन पर रखे हुए मृदंग के समान लोक का आकार बतलाया है, इसी प्रकार की और दूसरी वस्तुयें जो जमीन में चौड़ी, मध्य में संकरी तथा ऊपर में चौड़ी और फिर संकरी हो और एक दूसरे पर रखा जाने पर जैसा आकार बने, वह लोक का आकार है। लोक के अधः, मध्य और उर्ध्व यह तीन विभाग हैं और इन विभागों के होने का मध्यबिन्दु मेरू पर्वत ये मूल में है। चौदह राजू ऊंचाई प्रमाण इस लोक के विभाजन का कारण मेरू पर्वत की अवस्थित है। 'मेरू' शब्द का अर्थ है -८९ 'माप करने वाला'। जो तीनों लोक का माप करता है उसे मेरू कहते हैं। इस मध्य लोक के बीचोबीच जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊंचा मेरू पर्वत स्थित है, जिसका पाया जमीन में एक हजार योजन और ऊपर जमीन पर ९९००० योजन है। उसके ऊपर ४० योजन की चूलिका है। जमीन के समतल भाग पर इसकी लम्बाई-चौड़ाई चारों दिशाओं में दस हजार योजन की है। मेरू पर्वत के पाये के एक हजार में से नौ सौ योजन के नीचे जाने पर अधोलोक प्रारंभ होता है और अधोलोक के ऊपर १८०० योजन तक मध्यलोक है। अर्थात् नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर, कुल मिलाकर १८०० योजन मध्यलोक की सीमा है और मध्यलोक के बाद ऊपर का सभी क्षेत्र ऊर्ध्वलोक कहलाता है। इन तीनों लोकों में अधोलोक और उर्ध्वलोक की ऊंचाई-चौड़ाई से ज्यादा और मध्यलोक में ऊंचाई की अपेक्षा लम्बाई-चौड़ाई अधिक है, क्योंकि मध्यलोक की ऊंचाई तो सिर्फ १८०० योजन प्रमाण है और लम्बाई-चौड़ाई एक राजू प्रमाण है। इसके बीच में ही मेरूपर्वत है यानी मेरू प्रमाण मध्यलोक है। अधोलोक और ऊर्ध्वलोक की लम्बाई-चौड़ाई भी एक सी नहीं है। अधोलोक की लंबाई-चौड़ाई सातवें नरक में सात राज से कुछ कम है और पहला नरक एक राजू लंबाचौड़ा है; जो मध्यलोक की लंबाई-चौड़ाई के बराबर है। ऊर्ध्वलोक की लंबाई-चौड़ाई पांचवें देवलोक में पांच राजू और उसके बाद एक-एक प्रदेश की कमी करने पर लोक के चरम ऊपरी भाग पर एक राजू लंबाई-चौड़ाई रहती है। यानी ऊर्ध्वलोक का अन्तिम भाग मध्यलोक के बराबर लंबा-चौड़ा है। ३८२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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