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अनन्त पर्यायरूप से परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है। जो इस तरह परिणमनशील नहीं है, वह सत् भी नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य, द्रव्यरूप से नित्य है, क्योंकि द्रव्य का नाश कभी नहीं होता। किन्तु प्रतिसमय उसमें परिणमन होता रहता है, जो पर्याय एक समय में होती है वही दूसरे समय में नहीं होती, जो दूसरे समय में होती है, वह तीसरे समय में नहीं होती। अतः पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। पर्याय दो प्रकार की होती हैं - १) व्यंजनपर्याय और २) अर्थपर्याय। इन दोनों प्रकारों के भी दो दो भेद होते हैं- १) स्वभाव और २) विभाव। जीवद्रव्य की नर, नारक आदि पर्याय विभाव व्यंजन पर्याय है
और पुद्गलद्रव्य की शद, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, धूप, चांदनी आदि की पर्याय विभाव व्यंजनपर्याय हैं। प्रदेशत्वगुण के विकार को व्यंजनपर्याय और अन्य शेष गुणों के विकार को अर्थपर्याय कहते हैं। तथा जो पर्याय पर संबंध के निमित्त से होती है, उसे विभाव तथा जो परसंबंध के निमित्त बिना स्वभाव से ही होती है उसे स्वभाव पर्याय कहते हैं। हम चर्म चक्षुओं से जो कुछ देखते हैं, वह सब विभावव्यंजन पर्याय है। इस प्रकार छहों द्रव्य नित्य होने पर भी जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अनेक स्वभाव तथा विभावपर्यायरूप से प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं। परिणमन करना उनका स्वभाव है।८२ स्वभाव के बिना कोई वस्तु स्थिर नहीं रह सकती। उन्हीं परिणामी द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं।
२) द्रव्यों के लक्षण :- जगत में छह द्रव्य कैसे -कैसे एक दूसरे से बिल्कुल स्वतंत्र लक्षण वाले हैं, इससे कभी भी यह एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय द्रव्य का लक्षण 'जीव और पुद्गल को गति में सहायक होना है, इसलिए ये दो द्रव्य लोकाकाश के अन्त तक जा सकते हैं, आगे अलोक में नहीं। क्योंकि धर्मास्तिकाय लोकाकाश व्यापी है। मछली गमन तो अपनी शक्ती से ही करती है किन्तु उसमें पानी सहायक होने से पानी के किनारे तक ही जा सकती है, आगे नहीं। धर्मास्तिकाय की सहायता से जीव तथा पुद्गल के लिये ऐसी ही गति है। इसी तरह अधर्मास्तिकाय का लक्षण 'इन दो द्रव्यों की स्थिति में सहायक' होना है। अशक्त वृद्ध पुरुष को चलते हुए बीच में खड़े रहने के लिए लकड़ी सहायक होती है, इसी तरह जीव व पुद्गल को स्थिति (स्थिरता) करने में यह अधर्मास्तिकाय सहायक है। आकाश का लक्षण अवगाहना (समावेश) है। वह शेष सभी द्रव्यों को अपने में अवकाशदान करता है। पुद्गल का लक्षण पूर्ति करना व गलना है। यही एक द्रव्य ही ऐसा है कि जिसके अंदर अपने सजातीय द्रव्य मिलते हैं और अलग भी हो जाते हैं। अन्य सब द्रव्य जीवसहित, अखण्ड रहते हैं। उनमें न कुछ बढ़ता है और न कुछ घटता ही है। मेरू जैसे में भी पुद्गलों का सड़ना, गलना व विध्वंस होना और पूर्ति होना चाल ही है। जीव का लक्षण चैतन्य है, ज्ञानादि का
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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