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लोक व्यवस्था के प्रकार आदि का चिन्तन करें। साकार-निराकार उपयोग स्वरूप अनादि अनन्त तथा शरीर से भिन्न, अरूपी, स्वकर्म का कर्ता भोक्ता आदि रूप जीव का चिन्तन करें। जीव का संसार स्वकर्म से निर्मित, जन्मादि जलवाला, कषायरूपपाताल सहित, सैकड़ों व्यसनरूपी जलचर जीवों वाला, मोहावर्तवाला अति भयानक अज्ञान पर्वत से प्रेरित इष्टानिष्ट संयोग वियोग रूप तरंगवाला - अनादि अनंत अशुभ संसार का चिन्तन करें । पुनश्च उसे तैरने के लिए समर्थ, सम्यग्दर्शन का शुभ बंधवाला, निष्पाप व ज्ञानमय कप्तान वाले चारित्र जहाज का चिन्तन करें। अर्थात् रत्नत्रय का चिन्तन करें। आस्रवनिरोधात्मक संवर से छिद्ररहित किया हुआ, तप- पवन से प्रेरित, अति शीघ्र वेगवाला, वैराग्यमार्ग पर चढ़ा हुआ, बहुमूल्यवान् शीलांग-रत्नों से भरा हुआ वह जहाज है, उस पर आरूढ़ हुए मुनि-व्यापारी शीघ्र निर्विघ्नता से मोक्ष नगर में कैसे पहुँच जाते हैं, उसका चिन्तन करें। पुनश्च उस निर्वाणिनगर में ज्ञानादि तीन रत्नों के विनियोगमय एकांतिक, बाधारहित, स्वाभाविक, अनुपम और अक्षय सुख को जिस तरह प्राप्त करते हैं, उसका चिन्तन करें। अधिक विस्तृत न कहते हुए सिर्फ जीवादि पदार्थों का विस्तार से संपन्न और सर्व नय समूहमय सिद्धांत अर्थ का चिन्तन करें। ७७
१) लोक:- 'लोक' शब्द 'लुच्' धातु से बना है, जिसका अर्थ देखना होता है। ७८ अतः जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । ७९ इसका दूसरा नाम लोकाकाश है। इसके विपरीत जहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई भी द्रव्य दिखाई न दे, जहाँ सिर्फ शुद्ध आकाश ही आकाश है, उसे अलोक अथवा अलोकाकाश कहते हैं। लोक के मस्तक पर तनुवातवलय में कर्म और नोकर्म से रहित तथा सम्यक्त्वादि आठ गुणों से संपन्न सिद्ध भगवान विराजमान हैं । ८० जैसे विशाल स्थान के मध्य छौंका लटका रहता है वैसे ही अलोक के मध्य में लोक है, उसे किसी ने भी बनाया नहीं और न उसे किसी ने (हरि हर आदि) धारण भी किया है। वह अकृत्रिम है, अनादि अनंत है, स्वभाव से निष्पन्न है, जीव- अजीव द्रव्यों से भरा हुआ है। समस्त आकाश का अंग है और नित्य है । द्रव्यों की परस्पर में एकक्षेत्रावगाहरूप स्थिति को लोक कहते हैं। द्रव्य नित्य है इसलिए लोक को भी नित्य जानें। ८१ जो पर्यार्यो के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं या पर्यायों को प्राप्त करते हैं, उन्हें द्रव्य कहते हैं। परिणमन करना वस्तु का स्वभाव है। अतः द्रव्य प्रतिसमय परिणमन करते हैं। उनके परिणमन से लोक का भी परिणमन जानना चाहिये। क्योंकि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छहों द्रव्यों में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से प्रतिसमय परिणमन होता रहता है। प्रतिसमय छहों द्रव्यों की पूर्व पूर्व पर्याय नष्ट होती है, उत्तर-उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है और द्रव्यता ध्रुव रहती है। इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल में
ध्यान के विविध प्रकार
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