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________________ तीव्र और १) मंद, २) मंदतर, ३) मंदतम, और अत्यन्त मंद। यद्यपि इसके असंख्य प्रकार हैं तथापि उन सबका समावेश इन चार स्थानों में हो जाता है। इन चार प्रकारों को क्रमशः एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक कहा जाता है।अर्थात एक स्थानक से तीव्र या मंद, द्विस्थानक से तीव्रतर या मंदतर, त्रिस्थानक से तीव्रतम या मंदतम और चतुःस्थानक से अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मंद का ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार इन शुभाशुभ कमों के रस का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है।७४ जीवों के एक भव या अनेक भव संबंधी पुण्यपाप कर्म के फल का एवं उदय, उदीरणा, संक्रमण, बंध और मोक्ष का विचार करते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से कर्मफल का चिन्तन करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है। इस प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशानुसार शुभाशुभ कमों के विपाक (उदय-फल) का चिन्तवन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।७५ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से शुभाशुभ कर्मफलों की जो चर्चा की गई है उसका आशय यही है कि यद्यपि कमों के उदय या उदीरणा से जीव के औदयिकादि भाव एवं विविध प्रकार के शरीर की प्राप्ति इन कमों का उदय और उदीरणा बिना अन्य निमित्त के नहीं होती, परन्तु द्रव्य, क्षेत्रादि का निमित्त पाकर ही चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों में कमों का उदय-उदीरणा होती है।५६ (४) संस्थानविचय धर्मध्यान :- धर्मध्यान के चौथे प्रकार 'संस्थान विचय' में वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर कथित सिद्धांत के पदार्थों का विचार करना होता है। यहाँ 'संस्थान' यानी 'संस्थिति, अवस्थिति, स्वरूप, पदार्थों का स्वरूप' अर्थ होता है। विचय याने चिन्तन अथवा अभ्यास करना। सर्वज्ञ कथित सिद्धांत शास्त्र के पदार्थ ही यथार्थ होने से उनका ही चिन्तन करना होता है। ये पदार्थ इस प्रकार हैं निम्न पदार्थों के स्वरूप का एकाग्र चिन्तन करना है। इनमें मुख्यतः ६ द्रव्य, पंचास्तिकायमय अष्टविध लोक, क्षेत्रलोक, जीव, संसार, चारित्र और मोक्षा (चौथे संस्थान विचय में) सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मास्तिाकायादि द्रव्यों के लक्षण, आकृति, आधार प्रकार, स्वभाव, प्रमाण और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यादि पर्यायों का चिन्तन करें। जिनोक्त अनादि अनंत पंचास्तिकायमय लोक को नाम-स्थापनाद्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव और पर्यायलोक भेद से ८ प्रकार से तथा अधो, मध्य, ऊर्ध्व तीन प्रकार से चिन्तन करें। धम्मा आदि (रत्नप्रभादि) सात भूमियों, घनोदधि, आदिवलयों, जंबुद्वीप आदि असंख्य द्वीप समुद्रों, नदियाँ, सरोवरों, नरक, विमान, देवभवन तथा व्यंतरनगरों आदि की आकृत्ति, आकाशवायु आदि में प्रतिष्ठित शाश्वत् ३७८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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