SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकीभाव या कर्मप्रदेशों की संख्या का निर्धारण होना प्रदेशबंध है। इस प्रकार प्रकृति आदि का चिन्तन करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है। ७३ कर्मभोग के प्रकार :- - जीव द्वारा कर्म फल के भोग को कर्म की उदयावस्था कहते हैं। उदयावस्था में कर्म के शुभ या अशुभ फल का जीव द्वारा वेदन किया जाता है। यह कर्मोदय दो प्रकार का है - १) प्रदेशोदय और २) विपाकोदय । जिन कर्मों का भोग सिर्फ प्रदेशों में होता है, उसे प्रदेशोदय कहते हैं, इसका अपर नाम 'स्तिबुक संक्रमण' भी हो सकता है और जो कर्म शुभ-अशुभ फल देकर नष्ट हो जाते हैं वह विपाकोदय हैं। कर्मों का विपाकोदय ही आत्मा के गुणों को रोकता है और नवीन कर्मबंध में योग देता है। जब कि प्रदेशोदय में नवीन कर्मों के बंध करने की क्षमता नहीं है। और न वह आत्मगुणों को आवृत करता है । कर्मों के द्वारा आत्मगुण प्रकट रूप से आवृत्त होने पर भी कुछ अंशों में सदा अनावृत ही रहते हैं, जिससे आत्मा के अस्तित्व का बोध होता रहता है। कर्मावरणों के सघन होने पर भी उन आवरणों में ऐसी क्षमता नहीं है जो आत्मा को अनात्मा, चेतन को जड़ बना दें। लोक में कार्मण वर्गणायें व्याप्त हैं। इन कर्म परमाणुओं में जीव के साथ बंधने से पहले किसी प्रकार का रस - फल- जनन शक्ति नहीं रहती है। किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तब ग्रहण के समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनंतगुणा रस पड़ जाता है; जो अपने विपाकोदय में उस उस रूप में अपनाअपना फल देकर जीव के गुणों का घात करते हैं। इसलिए बंध को प्राप्त कर्म पुद्गलों में शुभाशुभ फल देने की जो शक्ति होती है, उसे ही रसबंध की संज्ञा प्राप्त होती है । जैसे सूखा घास नीरस होता है, लेकिन ऊँटनी, भैंस, गाय और बकरी के पेट में पहुँचकर वह दूध के रूप में परिणत होता है तथा उसके रस में चिकनाई की हीनाधिकता देखी जाती है। सूखे घास को खाकर ऊंटनी खूब गाढ़ा दूध देती है और उसमें चिकनाई भी बहुत अधिक होती है। भैंस के दूध में उससे कम गाढ़ापन व चिकनाई रहती है। गाय के दूध में उससे भी कम गाढ़ापन और चिकनाई है तथा बकरी के दूध में गाय के दूध से भी कम गाढ़ापन ब चिकनाई होती है। इस प्रकार जैसे एक प्रकार का घास भिन्न-भिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न रस रूप परिणत होता है, उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्म परमाणु भिन्न-भिन्न जीवों के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर भिन्न भिन्न रस वाले हो जाते हैं। शुभाशुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों का अनुभाग तीव्र भी होता है और मंद भी । अशुभ और शुभ (८२ पाप प्रकृतियाँ, ४२ पुण्य प्रकृ.) प्रकृतियों के तीव्र और मंद रस की चार-चार अवस्थाएं होती हैं - १ ) तीव्र, २) तीव्रतर, ३) तीव्रतम, ४) अत्यन्त ध्यान के विविध प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७७ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy