SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह विपाक दो प्रकार का है- हेतुविपाक और रसविपाक । पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक फलानुभव होता है, वह प्रकृति हेतुविपाकी कहलाती है। तथा रस के आश्रय अर्थात् रस की मुख्यता से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, वह प्रकृति रसविपाकी कहलाती है। इन दोनों प्रकार के विपाकों में से भी प्रत्येक के पुनः चार-चार भेद हैं । पुद्गल, क्षेत्र, भाव और जीव रूप हेतु के भेद से हेतुविपाकी के चार भेद हैं यानी पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भावविपाकी, और जीवविपाकी । इसी प्रकार से रसविपाक के भी एक स्थानक, द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चार स्थानक ये भेद 1 पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ जीव में ऐसी शक्ति पैदा करती हैं कि जिससे जीव अमुक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है। जीव द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण किये जाने पर यानी बंध होने पर उनमें चार अंशों का निर्माण होता है, जो बंध के प्रकार कहलाते हैं। इसीलिए आत्मा के साथ कर्म बंध की प्रक्रिया चार प्रकार की है- १ ) प्रकृतिबंध, २) स्थितिबंध, ३) रसबंध ( अनुभागबंध अथवा अनुभावबंध) और ४) प्रदेशबंध । ग्रहण के समय कर्मपुद्गल एकरूप होते हैं। किन्तु बंधकाल में उनमें आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि भिन्न-भिन्न गुणों को रोकने का स्वभाव हो जाता है। इसे प्रकृतिबंध कहते हैं । यहाँ प्रकृति शब्द का अर्थ स्वभाव है । ६९ दूसरी परिभाषा के अनुसार स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं । ७° अर्थात् प्रकृतिबंध कोई स्वतंत्र बंध नहीं है किन्तु शेष तीन बंधों के समुदाय का ही नाम है। प्रकृति यानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मों के मूल तथा प्रत्येक के उत्तर भेद और उनके स्वभाव क्रमशः आँख की पट्टी समान, द्वारपाल - समान, शहद- लिप्त तलवार की धार को चाटने के समान, मद्य (शराब) के समान, हड़ि (बेड़ी) के समान, चित्रकार के समान, कुम्हार के समान तथा भण्डारी के समान इन उदाहरणार्थ विपाक के समय ज्ञान का रोकना, दर्शन का रोकना, सुख-दुःख का अनुभव होना, स्व-पर विवेक में तथा स्वरूप रमण में अथवा आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात होना, आदि का चिन्तन करें। ७१ उनमें (बद्धकर्म ) समय की मर्यादा का निर्धारण होना स्थितिबंध है। स्थिति याने कर्मों का आत्मा पर चिपके रहने का काल, जघन्य से समय अथवा अन्तर्मुहूर्त - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय का जघन्य कालमान अन्तर्मुहूर्त का है एवं वेदनीय का १२ मुहूर्त और नाम और गोत्र का ८ मुहूर्त हैं तथा उत्कृष्ट कालमान ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और वेदनीय, का ३० कोटाकोटी सागरोपम, मोहनीय का ७० कोटाकोटी सागरोपम, आयु का ३३ सागरोपम, नाम और गोत्र का २० कोटाकोटी सागरोपम और अन्तराय का ३३ कोटाकोटी सागरोपम स्थिति है। ७२ आत्मपरिणामों की तीव्रता और मंदता के अनुरूप कर्मबंधन में तीव्र रस और मंद रस का होना, अनुभाग बंध कहलाता है, अनुभाग याने विपाक, रसोदय और ३७६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy