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________________ ० इन सोलह • प्रकार के कषायों में संज्वलन कषाय अल्प माना जाता है। फिर भी आध्यात्मिक विकास क्रम की सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ ग्यारहवीं भूमिका का साधक इस कषाय के कारण पतनोन्मुख बन जाता है। ६१ इसलिए विशेषावश्यक में जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण ने प्रतिपादन किया है कि ऋण, व्रण, अग्निकण और कषाय इनका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । ६२ क्योंकि कषाय के मूल दो ही भेद हैं- १) ममकार और २) अहंकार । राग द्वेष भी उन्हीं के नामान्तर (पर्याय) हैं। संक्षेप में माया और लोभ कषाय के युगल का नाम राग है और क्रोध तथा मान कषाय युगल का नाम द्वेष है। ६३ राग :- द्रव्यादि चार पर रति, प्रीति, मोह अथवा आसक्ति का होना अर्थात् इष्टप्रिय वस्तु में प्रीत्यादि होना राग है। इच्छा, मूर्च्छा, काम, स्नेह, गार्ध्य, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष आदि अनेक राग के पर्यायवाची नाम हैं। जैसे पेड़ के दीर्घ मूल उसके शाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि के लिए कारण हैं, वैसे ही रागभाव सर्व मोह का मूल है । ६४ दृष्टिराग, कामराग और स्नेहराग का फल दीर्घ संसार भ्रमण है । ६५ द्वेष :- अनिष्ट वस्तुओं में जो प्रीति का अभाव हैं, उसे द्वेष कहते हैं। यह द्वेष सम्पूर्ण संसार का मूल कारण है। ईर्ष्या, रोष, दोष, द्वेष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर और प्रचण्डन इत्यादि अनेक द्वेष के पर्यायवाची नाम हैं । ६६ इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग ये राग और द्वेष की सेना है। उसकी सहायता से वे दोनों आठ प्रकार के कर्म-बंध के कारण होते हैं। इसीलिए मिथ्यात्वादि हेतु एवं रागादि अपाय का चिन्तन करना ही अपायविचय धर्मध्यान है। मुख्यतः मिथ्यात्व और कषाय से युक्त संसारी जीव प्रतिपल प्रतिक्षण अनेक प्रकार के कर्मपुद्गलों एवं नो कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है और छोड़ता है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये दुःखों के कारण होने से चतुर्गतिरूप संसार के वर्धक हैं । ६७ इन सबके अनर्थों का चिन्तन करना ही अपायविचय धर्मध्यान है। (३) विपाक विचय धर्मध्यान :- विपाक -विचय' नामक तीसरे धर्मध्यान के प्रकार में आत्मा पर बंधे जाने वाले कर्मों की प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश के विपाक का चिन्तन करना होता है। विपाक से आशय रसोदय का है। कर्म प्रकृति में विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने को विपाक कहते हैं। जैसे आम आदि फल जब पक कर तैयार होते हैं, तब उनका विपाक होता है। वैसे ही कर्म प्रकृतियाँ भी जब अपना फल देने के अभिमुख होती हैं तब उनका विपाककाल कहलाता है। ध्यान के विविध प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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