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________________ कषाय :- 'कषाय' आत्मा का प्रबल शत्रु है अथवा विकार है। कषाय से बढ़कर आत्मगुणों का घातक अन्य कोई विकार नहीं है। कषाय का स्वरूप - जो आत्मा के गुणों को कषे (नष्ट करे)। अथवा कष का अर्थ है, जन्म-मरण-रूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो उसे कषाय कहते हैं।५६ सोलह कषाय और नौ नोकषाय से पच्चीस कषाय हैं।५७ यद्यपि कषायों से नोकषायों में थोडा सा भेद है, - जो कषाय तो न हो: किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है अथवा कषायों को पैदा करने में (उत्तेजित करने में) सहायक हो, उसे नोकषाय कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद- ये कषायों के सहवर्ती होने से और कषायों के सहयोग से पैदा होने से एवं कषायों को उत्पन्न करने में प्रेरक होने से हास्यादि को कषाय के अन्तर्गत लिया है। इसलिए कषाय के पच्चीस भेद किये हैं।नौ नोकषाय यहाँ विवक्षित नहीं है। जिस विकार के कारण आत्मा कर्मजाल में आबद्ध होती है, जिसके कारण उसे भव भ्रमण करना पड़ता है वह विकार ही कषाय है। आत्मा के उत्थान और पतन में कारणीभूत एकमात्र कषायभाव ही है। गुणस्थानों का क्रम भी कषाय के तारतम्य पर ही आधारित है। यों तो कषाय-अध्यवसाय की तीव्रता, तीव्रतरता, तीव्रतमता, मंदता, मंदतरता, मंदतमता आदि के आधार पर अनेक प्रकार की मानी जाती है, उनकी गणना हो ही नहीं सकती, तथापि उसके पार्थक्य का आभास बताने की दृष्टि से उसके चार स्थूल विभाग किये गये हैं, जिसके सोलह भेद होते हैं-५८ . १) अनन्तानुबंधी चतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ। २) अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क:- क्रोध, मान, माया, लोभ। ३) प्रत्याख्यानावरण चतुष्क :- क्रोध, मान, माया, लोभ। ४) संज्वलन चतुष्क:- क्रोध, मान, माया, लोभ। क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनय का घात होता है, माया (मायाचार) से विश्वास जाता रहता है और लोम से सभी गुण नष्ट हो जाते हैं।५९ जो जीव के सम्यक्त्व गुणों का घात करके अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करावे, उस कषाय को अनन्तानुबंधी कहते हैं। अनंतानुबंधी कषाय की कालमर्यादा जीवनपर्यंत है। यह नरक गति का बंधक है और आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घातक है। अनन्तानुबंधी चतुष्क को दृष्टान्त द्वारा समझाया जाता है - अनन्तानुबंधी क्रोध पर्वत में आई दरार के समान होता है। अनन्तानुबंधी मान पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) के समान होता है। ध्यान के विविध प्रकार ३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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