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________________ गौरव :- ऐश्वर्य, सुख और रस को गौरव कहते हैं। अशुभ भावों से लोभ आदि कषायों से एवं अभिमान के कारण अपने को जिस भारीपन का अनुभव होता है उसे शास्त्रीय भाषा में गौरव कहा जाता है। जब किसी राजा, मंत्री, सेठ, सेनापति आदि लौकिक पद एवं आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेद आदि पदवियाँ मिलने पर अभिमान आना ऋद्धिगौरव है। रसानुभूति करने वाली सभी इद्रियों के विषय ही रस (सुख) गौरव हैं। जीवन में जितनी सुख भोगों की सामग्री है वह मुझे ही प्राप्त हो अन्य को नहीं यह साता (सुख) गौरव है। इन तीन प्रकार के गौरव (अभिमान) से नीच गोत्र का बंध होता है। और भी साधक ऋद्धि गौरव से लोकैषणा, रस गौरव से निरणुकंपी और सातागौरव से साधनाहीन बन जाता है। अतः इनसे बचने का उपाय सोचना ही अपाय विचय धर्मध्यान है । ४६ परीवह :- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मेल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन आदि की बाधा को परीषह कहते हैं। परिषह २२ हैं । ४७ इनके बहुत दुःख भोगना पड़ता है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में प्रायः अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार आस्रव आदि की बुराइयों का चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। आगमन शल्य :- आगम में तीन शल्य बताये हैं-४८ १) माया शल्य, २) निदान शल्य, और ३) मिच्छा दर्शन ( मिथ्या दर्शन) शल्य । शल्य का अर्थ है पीडा देना। आँख या पैर में रजकण या कांटा जाने से चैन नहीं पड़ता, वैसे ही ये तीन शल्य हैं, जो आत्मा के निजस्वरूप का भान नहीं होने देती। क्योंकि शारीरिक और मानसिक पीड़ा देने वाला कर्मों का उदय, क्षयोपशमादिरूप जो माया, मिथ्यात्व और निदान यह तीन प्रकार का शल्य जीवों को पीड़ा देता है। हेतु :- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग ये पाँचों बंध हेतुओं के रूप में प्रसिद्ध हैं। ४९ इन हेतुओं के अनर्थ भी भयंकर हैं। यथा - मिथ्यात्व :- इसका दूसरा नाम मिथ्यादर्शन है। यह सम्यग्दर्शन के उल्टे अर्थ वाला होता है। पदार्थों के अ-यथार्थ श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं। मूढ़ जीव प्रबल मिथ्यात्व के प्रभाव से ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्ष को शरण मानता है। किन्तु अनादिकाल से जीव इसी कारण संसार में अनंतानंत बार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है। मिथ्यात्व के कारण जीव का जो अनेक शरीरों में संसरण (परिभ्रमण) होता है, उसे ही तो संसार कहते हैं। मिथ्यादर्शन मोहनीय कर्म के उदय के कारण ध्यान के विविध प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७१ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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