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________________ वह भी दो तरह से। पहला विभाग मन के संबंध और असंबंध पर निर्भर है अर्थात् मनवाले और मनरहित इस तरह दो विभाग किये हैं। जिनमें सकल संसारी का समावेश हो जाता है। दूसरा विभाग त्रसत्व और स्थावरत्व के आधार पर किया है- एक त्रस और दूसरे स्थावर । इस विभाग में भी सकल संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। आगम में त्रस के दो प्रकार कहे है ४२ - लब्धित्रस और गतित्रस । त्रस नाम-कर्म के उदयवाले लब्धि त्रस हैं। ये ही मुख्य त्रस हैं, जैसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव । स्थावर नामकर्म का उदय होने पर भी त्रस जैसी गति होने के कारण जो त्रस कहलाते हैं वे गतित्र । ये उपचार मात्र से त्रस हैं, जैसे तेजः कायिक और वायुकायिक। ये तो पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक सभी स्थावर कहलाते हैं। इस प्रकार छह जीवनिकाय का जिनाज्ञानुसार निरन्तर चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। षडृ द्रव्य : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन षट् द्रव्यों का जिनाज्ञानुसार चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। इन सभी द्रव्यों का आगे विवेचन करेंगे। इस प्रकार आज्ञाविचय धर्मध्यान में सिद्धान्तानुसार विभिन्न पहलुओं को लेकर चिन्तन किया जाता है। सारांश यही है कि द्वादशांग वाणी के अर्थ के अभ्यास करने को आज्ञाविचय कहते हैं। (२) अपायविचय धर्मध्यान : धर्मध्यान का दूसरा प्रकार अपायविचय है। इसमें रागादि क्रिया, कषाय क्रिया, मिथ्यात्वादि आस्रव क्रिया, हिंसादि क्रिया एवं विकथा, परीषह आदि से इस लोक व परलोक में उत्पन्न अनर्थ कैसे हैं? इन क्रियाओं के करने से जीव दीर्घकालीन आधि, व्याधि, उपाधि को प्राप्त करके संसार वृद्धि करता है। इसका इसमें विचार किया जाता है कि मैं कौन हूँ? कर्मों का आस्रव क्यों होता है? कर्मों का बंध क्यों होता है ? किन कारणों से निर्जरा होती है? संसारी और मुक्त आत्मा का स्वरूप क्या है ? मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है? कर्म क्षय कैसे हो सकता है? मिथ्यात्वत्वादि हेतु के कारण उत्पन्न कर्म कैसे निवारण होंगे? मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र से च्युत tha कैसे मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होगा ? सर्वज्ञ कथित सम्यग्दर्शनादि का पालन न करने से बद्धकर्मों के कारण जीव, जन्म, मरण, वेदना आदि का दुःख कैसे दूर करेगा? राग, द्वेष, मोह, कषाय एवं विषय विकारों से उत्पन्न अठारह पापस्थानों एवं तज्जनित दुःख, क्लेश, दुर्गति आदि अपाय के उपाय का चिन्तन करना ही अपाय विचय धर्मध्यान है। ध्यानाग्नि के द्वारा कर्म समूह को नष्ट करके आत्मा को शुद्ध करने का संकल्प ही अपायविचय धर्मध्यान है। क्योंकि जिनकथित मोक्ष मार्ग के अनुसार आचरण करने से सिद्धि निश्चय ही है। । इस प्रकार अपाय और उपाय दोनों का आत्मा की सिद्धि के लिये निश्चय करना ही अपायविचय धर्मध्यान का लक्ष्य है । ४३ ध्यान के विविध प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ३६९ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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