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________________ दिखाना ही श्रुतज्ञान है। आत्मा सर्व द्रव्यों से अलग वस्तु है इसका प्रथमतः श्रुतज्ञान से निर्णय करना ही जिनकथित अनेकान्त एवं स्याद्वाद रूप ही है।३७ इन सबका जिनाज्ञानुसार चिन्तवन करना ही आज्ञाविचय धर्मध्यान है। नौ तत्व : जिनागम में वीतराग प्रभु ने नौ तत्त्वों का प्रतिपादन किया है ३८- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आमव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षा जीव तत्त्व का लक्षण चेतना (उपयोग) है और अजीव तत्त्व चेतनारहित जड़ पदार्थ है। पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल ये सब अजीव हैं। इनमें से पुद्गलास्तिकाय रूपी है, शेष सब अरूपी हैं। जीव और अजीव ये दोनों ही पदार्थ अपने भिन्न स्वरूप के अस्तित्व से मूल पदार्थ है। इनके अतिरिक्त जो सात पदार्थ हैं वे जीव और अजीव पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न हुये हैं। जब जीव के शुभ परिणाम होते हैं। तब उस शुभ परिणाम के निमित्त से पुद्गल में शुभ कर्मरूप शक्ति होती है अर्थात् जिसके उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है, उसे पुण्य कहते हैं। पुण्य के दो भेद हैं। द्रव्यपुण्य और भावपुण्य। जीव के अशुभ परिणामों के निमित्त से पुद्गल वर्गणाओं में अशुभ कर्म में परिणत होनेवाली शक्ति को अर्थात् जिसके उदय से दुःख की प्राप्ती हो, आत्मा को शुभ कार्यों से पृथक् रखे, उसे पाप कहते हैं। इसके दो भेद हैं - द्रव्यपाप और भावपाप। मोहरागद्वेष रूप जीव के परिणामों के निमित्त से मन वचन काय-योगों द्वारा पुद्गल कर्मवर्गणाओं का आगमन होना अर्थात शुभाशुभ कर्मों के आगमन द्वार को आस्रव कहते हैं। आम्रव के दो भेद हैं - द्रव्यानव और भावानव। जीव के मोहरागद्वेष परिणामों को रोकनेवाले भावों का निमित्त पाकर योगों द्वारा पुद्गल वर्गणाओं के आगमन का निरोध होना संवर है। इसके दो भेद हैं-द्रव्यसंवर और भावसंवर। आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह आपस में मिले हुए कर्मपुद्गलों के बहिरंग और अंतरंग तपों द्वारा एक देश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो भेद हैं। द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा। जीव के मोह-राग-द्वेष रूप स्निग्ध परिणामों के निमित्त से कर्मवर्गणा रूप पुद्गलों का जीव के प्रदेशों से (आत्मप्रदेशों से) परस्पर एकक्षेत्रावगाह करके संबंध होना बंध है। बंध के दो भेद हैं। द्रव्यबंध और भावबंध। संपूर्ण कमों के क्षय होने को मोक्ष कहते हैं। कहीं-कहीं पुण्य और पाप को आस्रव या बंध तत्त्व में समाविष्ट करके सात तत्त्व कहे हैं।३९ संसार में नौ ही तत्त्व हैं। सर्वज्ञकथित नौ तत्त्वों का सतत चिन्तन करना ही आज्ञा विचय धर्मध्यान है। छह जीवनिकाय : आगम में छह जीवनिकाय का इस प्रकार विभाजन किया गया है४० - पृथ्वीकाय, अप्काय (जल), तेजस्काय (अग्नि), वायुकाय (हवा), वनस्पतिकाय और त्रसकाय। संसारी जीव अनन्त हैं। इन अनन्त जीवों को छह जीवनिकाय में विभाजित किया गया है। और इन छह जीवनिकाय को संक्षेप से दो भागों में ४१ विभाजित किया है - ३६८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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