________________
का विषय करने वाला (विषयी) है। जिनकथित निक्षेप चार हैं ३५-नाम, स्थापना, द्रव्य
और भाव निक्षेप। नामनिक्षेप में वस्तु या पदार्थ का नामकरण किया जाता है। स्थापना निक्षेप में असली वस्तु का स्थापन अर्थात् आरोप किया जाता है। स्थापना निक्षेप के दो प्रकार हैं- तदाकार और अतदाकार। इनमें मनोभावना की ही प्रबलता रहती है। द्रव्यनिक्षेप- जो अर्थ भावनिक्षेप का पूर्व रूप या उत्तर रूप हो वह......। स्थापना निक्षेप में वस्तु का आरोपण किया जाता है (मूल वस्तु नहीं) और द्रव्यनिक्षेप में मूल वस्तु का ही आरोपण किया जाता है। यही इन दोनों में अन्तर है। जिस अर्थ में शब्द की व्युत्पत्ति या प्रवृत्ति का निमित्त ठीक घटित हो वह भाव निक्षेप है। इन चारों निक्षेपों के द्वारा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय एवं जीवादि नौ तत्त्वों का न्यास अर्थात निक्षेप या विभाग होता है। नाम और स्थापना ये द्रव्यार्थिकनय के निक्षेप हैं और भाव पर्यायार्थिकनय की प्ररूपणा है।३६ इस प्रकार जिनकथित निक्षेपों का सतत चिन्तन करना ही आज्ञा विचय धर्मध्यान
अनेकान्त या स्याद्वाद या श्रुतज्ञान : श्रुतज्ञान का वास्तविक रूप ही अनेकान्त है। किसी भी वस्तु को उसके अनेक भागों से देखने की वृत्ति रखना ही अनेकान्त दृष्टि है। अनेकान्तदृष्टि एक प्रकार से प्रमाणनय निक्षेप पद्धति ही है। वह तत्त्वप्ररूपणा की उत्पादव्यय-प्रौव्यात्मक पद्धति है। पदार्थों की प्ररूपणा का मार्ग द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनय, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, देश, संजोग, पर्याय और भेद के आश्रित ही है। इन्हीं प्रकारों के द्वारा पदार्थों की प्ररूपणा की अनेकान्तदृष्टि योग्य मानी जाती है। श्रुतज्ञान द्रव्य और भाव से आचारांगादि ग्यारह अंगों का, रायपसेणीय आदि बारह उपांगों का तथा आग्रायणी आदि चौदह पूर्वो का। यही दृष्टिवाद है जो बारहवां अंग है। इसी प्रकार सामायिकादि प्रकीर्णकों का विस्तृत रूप ही श्रुतज्ञान है, यह श्रुतज्ञान बत्तीस आगम को द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चार योगों में प्रतिपादित करता है अर्थात् यही सब श्रुतज्ञान हैं। श्रुतज्ञान “स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्यः, स्यात् अस्ति अव्यक्तव्यः, स्यात् नास्ति-अवक्तव्यः, स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्यः" इन सात भंग द्वारा वस्तु का स्वरूप सिद्ध करता है। यही अनेकान्त का स्वरूप है। अनेकान्त का लक्षण वस्तू 'स्व' रूप है और 'पर' रूप से नहीं है। इसको स्वतंत्र सिद्ध करना ही श्रुतज्ञान है। यहां अस्तित्व धर्म को लेकर ही कहीं विधि, कहीं निषेध
और कहीं विधिनिषेध दोनों क्रम से और कहीं दोनों एक साथ वस्तु के साथ बताये गये हैं। 'स्याद्' का अर्थ है, किसी अपेक्षा से। वस्तु किसी अपेक्षा से 'स्व'रूप है और किसी अपेक्षा से पर रूप है अर्थात नहीं है, ऐसा परस्पर विरुद्ध एवं दो शक्तियों को अलगअलग अथवा भिन्न-भिन्न अपेक्षा से प्रकाशित करके वस्तु को पर से भिन्न स्वरूप में
ध्यान के विविध प्रकार
३६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org