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________________ प्रत्येक वस्तु के मुख्यतः दो अंश होते हैं। (१) द्रव्य और (२) पर्याय। वस्तु को जो द्रव्यरूप से जाने वह द्रव्यार्थिकनय और जो वस्तु (पदार्थ) को पर्याय रूप से जाने वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है। मुख्य ये दो ही नय हैं- पर्यायार्थिक नय प्रतिक्षण उत्पादविनाश स्वभाव वाले हैं जब कि द्रव्यार्थिकनय स्थिर स्वभाव वाला है। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद-नैगम, संग्रह और व्यवहार और पर्यायार्थिक नय के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ व एवंभूत ऐसे चार भेद हैं। नैगमनय सामान्य - विशेषादि अनेक धर्मों को स्वीकारता है। संग्रहनय सामान्य को ही तात्त्विक मानता है, विशेष को नहीं। व्यवहारनय विशेष का ही प्रतिपादन करता है, सामान्य का नहीं। ऋजुसूत्र नय वर्तमानकालीन पर्याय को ही मानता है, फिर चाहे वस्तु के लिंग और वचन भिन्न हों। शब्द नय भी ऋजुसूत्रनय की भांति ही वर्तमानकालीन वस्तु को मानता है। यह अभिन्न लिंग एवं वचन वाले पर्याय शब्दों की एकार्थता मानता है। इसका दूसरा नाम साम्प्रत नय' भी है। समभिरूढ़ नय पर्याय भेद से अर्थ भेद को मानता है। इन्द्र, शुक्र, पुरंदर आदि शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न करता है। शब्द नय अभिन्न लिंग एवं वचनवाले पर्याय शब्दों की एकार्थता मानता है और समभिरूढ़ नय भिन्नार्थकता को मानता है। यही इन दोनों में अन्तर है। एवंभूत नय उस-उस शब्द के व्युत्पत्ति अर्थ के अनुसार उसे मानता है। इस प्रकार सातों नयों का स्वरूप सर्वज्ञ कथित है। इन सातों नयों को आगम में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय रूप में प्रतिपादित किया है। द्रव्यार्थिक नय के लिए ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्द मिलते हैं, यथा व्यवहार, अशुद्ध, असत्यार्थ, अपरमार्थ, अभूतार्थ, परालंबी, पराश्रित, परतंत्र, निमित्ताधीन, क्षणिक, उत्पन्नध्वंसी, भेद एवं परलक्षी आदि। ऐसे ही द्रव्यार्थिकनय के लिए भी ग्रन्थों में अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं, यथा निश्चय, शुद्ध , सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, स्वावलंबी, स्वाश्रित, स्वतंत्र, स्वाभाविक, त्रिकालवर्ती, ध्रुव, अभेद और स्वलक्षी आदि । इसीलिए कुन्दकुन्दाचार्य आदि नयों का निरूपण करने वालों ने नयों का शास्त्रीय और आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टि के अनुसार नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद करके उनके अन्तर्गत सात भेदों का विवेचन किया है और आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहारनय का प्रतिपादन किया है। ३३ स्व और पर को निश्चित रूप से जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। यहाँ 'स्व' का अर्थ है ज्ञान से भिन्न पदार्थ। जो ज्ञान अपने स्वरूप को और दूसरे घट-पट आदि पदार्थों को सम्यक् प्रकार से निश्चित रूप से जानता है, वही प्रमाण कहलाता है।३४ निक्षेप : प्रमाण और नय के अनुसार निक्षेप भी उतना ही प्रचलित है। ज्ञेय पदार्थ अखण्ड है, किन्तु उन्हें जानते हुए ज्ञेयपदार्थ का जो भेद (अंश खण्ड) करने में आता है उसे निक्षेप कहते हैं। उस अंश को जाननेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। तथा उसके सम्पूर्ण पर्याय को जाननेवाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। निक्षेप नय का विषय है और नय निक्षेप ३६६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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