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________________ विचारणा एकार्थवाची नाम है२४। इसलिए विचय नाम विचार करने अर्थात् चितवन करने का है, तथा इन चारों प्रकारों के नामकरण इस प्रकार हैं-२५ १. आज्ञा विचय, २. अपाय विचय, ३. विपाक विचय और ४. संस्थान विचय। (१) आज्ञा विचय धर्मध्यान : आज्ञा शब्द से आगम, सिद्धांत और जिनवचन को लिया गया है। ये तीनों ही एकार्थवाची नाम हैं।२६ इसलिये सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मानकर, उस पर पूर्ण श्रद्धा रखकर, उसमें प्रतिपादित नय, प्रमाण, निक्षेप, सात भंग, नौ तत्त्व, पाँच अस्तिकाय अथवा षट् द्रव्य, छह जीवनिकाय एवं अन्य आज्ञाग्राह्य जितने भी पदार्थ हैं उनका नय, प्रमाण, निक्षेप द्वारा निरन्तर चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है२७। वीतराग प्ररूपित तत्त्वों एवं अन्य पदार्थों में से कोई समझ में न आये तो चिन्तवन करें कि "वीतराग प्ररूपित वचन सत्य एवं तथ्य है। उन्होंने राग-द्वेष-मोह पर पूर्णतः विजय मिलाई है। अतः उनके वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते।" फिर भी मति की दुर्बलता, ज्ञेय की गहनता, ज्ञानावरणादि कर्मों की तीव्रता होने से एवं हेतु तथा उदाहरण संभव न होने पर भी नदी और सुखोद्यान आदि रमणीय स्थान में बैठकर ध्याता चिन्तवन करे कि "जिनवचन ही सत्य है। वह सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगत् के जीवों का हित करने वाली है, जगत् के जीवों द्वारा सेवित है, अमूल्य है, अमित है (अमृत सा है), अजित है, अर्थगर्भित है, महान विषयवाला है, निरवद्य है, अनिपुणजनों के लिए दुर्जेय है तथा नय, भंगों एवं प्रमाण से ग्रहण जगप्रदीपस्वरूप जिनवचन का पालन सतत करना चाहिए।" इस प्रकार जिनवचनों का चिन्तन, मनन, निदिध्यासन सतत करते रहना, उनके वचनों में सन्देह न करना तथा उसमें मन को सदा एकाग्र बनाये रखना ही आज्ञाविचय धर्मध्यान है२८ आगम को दो भागों में विभाजित किया गया है - अर्थसमूह रूप में और शब्दसमूह रूप में। शब्दसमूह रूप आगम गणधरप्रणीत हैं, जब कि अर्थसमूह रूप आगम सर्वज्ञप्रणीत (तीर्थंकर प्रणीत) हैं।२९ नय-प्रमाण का स्वरूप : प्रमाण से परिच्छिन्न अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करनेवाले (दूसरे अंशों का प्रतिक्षेप किये बिना) अध्यवसाय विशेष को 'नय' कहा जाता है। प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है। 'प्रमाण' इस पदार्थ को अनंत धर्मात्मक सिद्ध करता है, जब कि 'नय' इस पदार्थ के अनंत धों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है। किन्तु अन्य धर्मों का खण्डन नही करता३०। इन दोनों में यही अन्तर है कि नय वस्तु के एक अंश का बोध करता है और प्रमाण अनेक अंशों का। समुद्र का एक देश अंश समुद्र नहीं कहलाता, वैसे ही नयों को प्रमाण या अप्रमाण भी नहीं कह सकते।३१ वीतरागाज्ञा में सुनय को ग्रहण किया गया है। ध्यान के विविध प्रकार ३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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