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(५) उल्कापात (६) पक्षी स्वर (७) व्यंजन, तिलमस संबंधी (८) लक्षण एवं सामुद्रिक-इन आठों के अर्थ, पाठ और भेद ८४३ = २४ रूप हुए (२५) कामकथा (२६) विद्यारोहिणी (२७) तंत्र (२८) मंत्र और (२९) अन्य मतवादियों के आचार विधान। कामविकारजन्य काव्य, ग्रन्थ, उपन्यास आदि पढ़ना, शृंगारिक वस्तुओं का संग्रह करना एवं उसमें अधिकाधिक रुचि रखना, हिंसक प्रवृत्ति में प्रीति रखना, देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप को न मानना, इन्द्रियों के पोषण में, कषायों के सेवन में ही धर्म मानना इत्यादि प्रकार के अनेक विचारों का होना 'अज्ञानदोष' नामक रौद्रध्यान है।
(४) आमरणान्तदोष : मृत्यु पर्यंत सतत क्रूर हिंसादि कार्यों में एवं अठारह प्रकार के २१ पाप कार्यों में (१. प्राणातिपात, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. कलह, १३. अभ्याख्यान, १४. पैशुन्य, १५. परपरिवाद, १६. रति अरति, १७. मायामृषावाद और १८. मिथ्यादर्शन शल्य) अनुरक्त रहना, पूर्वकृत पाप कार्यों का मृत्युशय्या पर रोते हुए भी पश्चात्ताप न होना, किन्तु निरंतर मन, वचन, काय से हिंसक, घृणित एवं निकृष्ट पापपूर्ण प्रवृत्ति में कार्यशील रहना ही 'आमरणान्त दोष' नामक रौद्रध्यान है।
इसके अतिरिक्त आगमेतर ग्रन्थों में बाह्य और आभ्यन्तर रूप से रौद्र ध्यान के लक्षण बताये हैं
बाह्य रौद्रध्यान के लक्षण : हिंसादि उपकरणों का संग्रह करना, क्रूर जीवों पर अनुग्रह करना-दुष्ट जीवों को प्रोत्साहन देना, निर्दयतादिक भाव, व्यवहार की क्रूरता, मन वचन काय प्रवृत्ति की निष्ठुरता एवं ठगाई, ईर्ष्यावृत्ति, मायाप्रवृत्ति, क्रोध करना उसके कारण नेत्रों से अंगार बरसना, भृकुटियों का टेढ़ा होना, भीषण रूप बनाना, पसीना आना, अंग प्रत्यंग कापना अनेक प्रकार के रौद्रध्यान के बाह्य लक्षण हैं२२।
आभ्यन्तर रौद्रध्यान के लक्षण : मन वचन काय से दूसरे का हमेशा बुरा सोचना, दुसरे की बढ़ती एवं प्रगति को देखकर सतत मन में जलना, दुःखी को देखकर आनन्दी होना, गुणीजनों को देखकर ईर्षा करना, इहलोक परलोक के भय से बेपरवाह रहना, पश्चात्तापरहित प्रवृत्ति होना, पापकार्य से खुश रहना, धर्म से विमुख होना, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म में श्रद्धा रखना आदि रौद्रध्यान के आभ्यन्तर लक्षण हैं२३।
इस प्रकार आगम कथित रौद्रध्यान के ४ + ४ = ८ भेद हुये।
धर्मध्यान : आगम कथित भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षानुसार धर्मध्यान के १६ भेद बताये हैं सो निम्नलिखित हैं
धर्मध्यान के चार भेद : आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान इनका भिन्नभिन्न विचय (विचार) अनुक्रम से करना ही धर्मध्यान के चार प्रकार हैं। यहां विचय, विवेक.
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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