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________________ की दृष्टि से शीत, उष्ण, वर्षाऋतु में उपयोगी वस्त्र, अन्न, मकानादि की रक्षा की भावना रखना, शत्रुरक्षार्थ शस्त्रों एवं सुभटों की रक्षा का उपाय सोचना, उसमें सतत चिन्तित रहना, वातपित्तकफ आदि रोगों से उत्पन्न आधि व्याधि को दूर करने के लिए सतत औषधोपचार, व्यन्तरादि देवों के उपद्रवों से मंत्रादि द्वारा शरीर को सुरक्षित रखने की चिन्ता करना, स्वयं सुखी रहने की सतत भावना रखना, हृष्ट पुष्ट काय को देखकर हर्षित होना, अभक्ष्यादि पदार्थों द्वारा शरीर को पुष्ट करने की भावना रखना, स्वजन एवं सम्पत्ति, राजा, मित्रादि को नाश करने की क्रर भावना रखना, उन्हें कष्ट में डालने के लिए विविध उपाय खोजना इस प्रकार शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि पदार्थों के संग्रह-रक्षण के लिए अतिशय संक्लेश परिणाम से मन को उपरोक्त सभी क्रियाओं में संलग्न (एकाग्र) करना ही संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान है। हिंसा, झूठ, चोरी और धन संरक्षण ये चारों प्रकार के रौद्र-ध्यान स्वयं करे, दूसरों से कराये तथा करवाने को अनुमोदना दे इन तीनों के निमित्तादि का चिन्तन करना ही रौद्रध्यान है। रागद्वेषमोहादि से व्याकुल जीव को ही ये चारों प्रकार के रौद्रध्यान होते हैं। ये चारों ही प्रकार रागद्वेषमोहजनित हैं, संसारवर्धक हैं तथा नरकगति की जड़ हैं१८१ रौद्रध्यान के चार लक्षण (चिह्न) रौद्रध्यान के आगम कथित चार प्रकार निम्नलिखित है। (१) ओसन्नदोष (२) बहुल दोष (३) अज्ञानदोष और (४) आमरणान्त दोष (१) ओसन्नदोष : हिंसादि चारों भेदों में से किसी भी एक भेद में सतत प्रवृत्ति करना, बार-बार नाना भांति एवं विभिन्न साधनों द्वारा पृथ्व्यादि के छेदन, भेदन क्रियाओं में सतत क्रियाशील रहना, हिंसक प्रवृत्ति अधिक रखना, स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा के लिए विभिन्न उपाय करना, झूठ पोषणार्थ अनेक पापजनक शस्त्र बनाना इस प्रकार पाँचों इंद्रियों के पोषण के लिए विविध उपायों को करना, करवाना ओसन्न दोष संबंधी रौद्रध्यान (२) बहल दोष : हिंसादि सभी साधनों की तथा रौद्र ध्यानों के चारों प्रकारों की अधिकाधिक इच्छा एवं वैसी प्रवृति करना उसमें तृप्ति न होना बहुलदोष रौद्रध्यान है। (३) अज्ञानदोष : रौद्रध्यान का स्वभाव ही सद्ज्ञान का नाश करना है। इससे मूढ़ता, अज्ञानता की वृद्धि होती है। सत्कार्य की प्रीति नष्ट होकर दुष्कार्य में संलग्नता उत्पन्न होती है। सत् शास्त्र श्रवण, सत्संगति में अप्रीति होती है तथा अरुचि जागती है। और भी २९ प्रकार के पापसूत्रों के अभ्यास में अज्ञानतावश प्रीति होती है। २९ प्रकार के पापसूत्र ये है२०- (१) भूमि कंपन (२) उत्पात (३) स्वप्न (४) अंग स्फुरण ध्यान के विविध प्रकार ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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