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________________ लक्षण शब्द के विभिन्न अर्थ : कोशों में • लक्षण शब्द अनेक अर्थों में मिलता है। यथा, किसी वस्तु की विशेषता, जिससे वह पहचाना जाय/रोग की पहचान/नाम/ परिभाषा/दर्शन/सारसपक्षी/शरीरपर का कोई शुभ या अशुभ चिह्न/सामुद्रिक/लच्छन/ उपाधि/विशिष्टता/उत्तमता/लक्ष्य, उद्देश्य/आकार, प्रकार, किस्म/कार्य, क्रिया । कारण/विषय, प्रसंग/बहाना आदि। आर्तध्यान के चार लक्षण - आर्तध्यान के चारों भेदों में से किसी भी एक की प्रबलता होने से सकर्मी (भारी-कर्मी) जीवों में कर्मों की प्रबलता के कारण अथवा अपने स्वभाव के कारण चार अवस्थाएं (लक्षण) उत्पन्न होती हैं जो निम्नलिखित हैं-११ (१) कंदणया (क्रन्दनता) (२) सोयणया (शोचनता) (३) तिप्पणया (तेपनता) (४) परिदेवणया (परिदेवनता) (१) कंदणयाः ऊंचे स्वर से रोना, चिल्लाना या आक्रन्दन करना। (२) सोयणया : शोच = चिन्ता करना, खिन्न होना, उदास होकर बैठना, चिन्तामग्नावस्था में बैठे रहना, पागलवत् कार्य करना, मूर्छित होना, दीनता भाव से आंख में आंसू लाना आदि। (३) तिप्पणया : वस्तु विशेष का चिन्तन करके जोर-जोर से रोना, वाणी द्वारा रोष प्रकट करना, क्रोध करना, व्यर्थ की बातें बनाना, अप्रियकारी शब्दोच्चार करना आदि। (४) परिदेवणया:माता, पिता, पुत्र, स्वजन, मित्र, स्नेही आदि की मृत्यु होने पर अधिक विलाप करना, हाथ पैर पछाड़ना, हृदय पर प्रहार करना, बालों को तोड़ना, अंगों को पछाड़ना, महान अनर्थकारी शब्दों का उच्चारण करना तथा क्लेश एवं दयाजनक भाषा बोलना आदि। इस प्रकार आगमकथित आर्तध्यान के ४ भेद + ४ लक्षण = ८ भेद होते हैं। इन आगमिक चार लक्षणों के अतिरिक्त आगमेतर ग्रन्थों में आर्तध्यान के और भी लक्षण प्राप्त होते हैं१२ -बातों बातों (बात-बात) में शंका करना, भय, प्रमाद, असावधानी, क्लेशजन्य कार्य, ईर्ष्या वृत्ति, चित्तभ्रम, प्रान्ति, विषय सेवन की उत्कंठा, निरन्तर रोना, (निद्रा लेना) अंग में जड़ता का होना, शिथिलता, कायरता, चित्त में खेद, वस्तु में मूर्छा, निन्दक प्रवृत्ति, दूसरे की संपत्ति को देखकर विस्मित होकर प्रशंसा करना, उसे पाने की अभिलाषा करना, मन में जलना, कुढना, धन में आसक्ति रखना, इन्द्रियविषयों में आसक्त होना, शुद्ध धर्म से परांगमुख होना, जिन वचन का अनादर करना, देव, गुरु धर्म पर श्रद्धा न होना आदि। ध्यान के विविध प्रकार ३५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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