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________________ रौद्रध्यान के चार भेद : आगमकथित रौद्रध्यान के चार प्रकार इस प्रकार हैं१३ (१) हिंसानुबंधी (२) मृषानुबंधी (३) स्तेयानुबंधी और (४) संरक्षणानुंबधी | आगमेतर ग्रन्थों में इन्हीं विषयों के अनुसार थोड़े से नामों की भिन्नता को लिए हुए नाम मिलते हैं। (१) हिंसानंद ( हिंसानन्दि, हिंसानुबन्धी) (२) मृषानंद (मृषानन्दि, अनृतानुबन्धी) (३) चौर्यानन्द (चौर्यानन्दि, स्तेयानुबन्धी) और (४) संरक्षणानंद (विषयानन्दि, विषय - संरक्षणानुबंधी) इन चार भेदों का स्वरूप निम्नलिखित है। यथा (१) हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान : एकेन्द्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक किसी भी जीव को या सचित्त पदार्थ को स्व तथा पर से छेदन, भेदन, ताड़न, मारन, तापन, बन्धन, प्रहार, दमन आदि की प्रवृत्ति करना, नभचर - कौवा, तोता, कबूतर आदि पक्षी, जलचरमगरमच्छ, मत्स्य आदि जन्तु, स्थलचर- गाय, भैंस, सिंह, वाघ, हाथी, घोडा, बैल आदि पशुओं के कान, नाक आदि बींधना, जंजीर आदि से बांधना, तलवार आदि शस्त्रों से प्राणरहित करने में आनंद मनाना, हिंसक प्रवृत्ति में सतत कुशल रहना, पापकारी कार्य में प्रवीण, क्रूर, निष्ठुर, निर्दय लोगों से मैत्री करना अर्थात् सतत उनके साथ रहना, प्राणियों को कैसे मारा जाय? उसके लिए कौन से उपाय किये जाए? इसमें कौन 'चतुर है? इस प्रकार का संकल्प-विकल्प करना, अश्वमेध यज्ञ, गोमेधयज्ञ, अजमेधयज्ञ, नरमेधयज्ञ आदि यज्ञादि में प्राणियों की हिंसा करके आनंद मनाना, उन्हें जलते हुए देखकर प्रसन्न होना, खुशी मनाना, निरापराध जन्तुओं को पीड़ित करके खुश होना, शान्ति स्थापित करने के लिए ब्राह्मण, गुरु, देवता आदि की स्वार्थ बुद्धि से पूजा एवं स्मरण करने का संकल्प करना, जीवों को बन्धन में बांधकर, शत्रु को शक्तिहीन कर, युद्ध में जय विजय पराजय की भावना कर आनन्दित होना, कत्लखाने में प्राणियों के करुण क्रन्दन को सुनकर देखकर अत्यधिक आनन्दित होना, शूली पर चढ़ते हुए जीव की वेदना को देखकर विचार करे, कि अच्छा हुआ, इसे ऐसा ही दण्ड मिलना चाहिये था, बड़ा जुल्मी था, पापी था, क्रूर था, निर्दयी था, हिंसक था, अच्छा हुआ मर गया। शिल्पकारों की कलाओं से प्रसन्न होकर हिंसक प्रवृत्ति में रस लेना। डास-मच्छर, सर्प, बिच्छु आदि विषैले प्राणियों को दवा आदि से खत्म करके आनन्दित होना तथा चक्की, हल, बखर, कुदाली, फावड़ा, उखल, मूसल, सरोता, हासिया, हथौड़ा, कैंची, बन्दूक, तलवार, चाकू आदि अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करके जीवों की हिंसा करने में खुशी मनाना । ये सभी हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान हैं। ये सभी बातें रौद्रध्यान के प्रथम भेद में आती हैं। इसके अतिरिक्त ईर्ष्यावृत्ति, मायावृत्ति, हिंसक शस्त्र, वस्त्र, ग्रन्थ, होम आदि का निर्माण करना एवं हमेशा हिंसाजनक वस्तुओं को उपयोग में लाने की भावना रखना हिंसानुबंधी रौद्रध्यान है १४ । मृषानुबंधी रौद्रध्यान : यह दुष्ट वचन बोलने के उम्र चिन्तन से होता है। व्यावहारिक कार्य के प्रत्येक प्रवृत्ति में दूसरे को ठगने की भावना रखना, पाप करनेवाले जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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