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(३) आतंक (रोग) (रोग वियोग चिन्ता) : वात, पित्त, कफ, के प्रकोप से होने-वाले भयंकर कंठमाला, कोढ, राजयक्ष्मा-क्षय, अपस्मार-मूळ-मृगी, नेत्ररोग, शरीर की जड़ता, लूला लंगडा होना, कुब्जकुबडा होना, उदररोग-जलोदरादि, मूक, सोजनशोथ, भस्मक रोग, कम्पन, पीठ का झुकना, श्लीपद (पैर का कठन होना), मधुमेह-प्रमेह-इन सोलह महारोगों से उत्पन्न पीड़ा और कष्ट अति दुःखदायक होती है। ये ही पाप बन्ध का कारण है। मनुष्य के शरीर में साढे तीन करोड़ रोम माने जाते हैं। उनमें से प्रत्येक रोम में पौने दो रोग कहे जाते हैं। जब तक मनुष्य के सातावेदनीय कर्म का उदय रहता है, तब तक रोगों की अनुभूति नहीं होती। परंतु जैसे ही असातावेदनीय कर्म का उदय होता है कि इन सोलह रोगों में से किसी भी एक रोग का विपाक होता है। रोग के विपाक होते ही उसके भयंकर वेदना से मन व्याकुल हो जाता है। उसे दूर करने के लिए प्रयत्न शुरू किये जाते हैं। नाना प्रकार के आरम्भ, समारम्भ, छेदन, भेदन, पचन, पाचन आदि क्रियायें की जाती है। इस प्रकार रोग के विपाक होने पर उसके वियोग का सतत चिन्तन करना ही आतंक नामक तीसरा आर्तध्यान है।
(४) भोगेच्छा अथवा निदान : पांचों इन्द्रियों में दो इन्द्रियां (आंख, कान) कामी हैं तथा शेष तीन इन्द्रियाँ (रसना, घ्राण, स्पर्शन) भोगी हैं। इन इन्द्रियों द्वारा अर्थात् श्रोतेन्द्रिय द्वारा राग-रागिनी का श्रवण, किन्नरियों का गायन, वाद्यादि के मनोहर राग सुनने के भाव उत्पन्न होना एवं उसमें आनन्द मानना, चक्षुरिन्द्रिय से नृत्य, सोलह श्रृंगारों से सुसज्जित स्त्री, विभिन्न मनोहर रमणीय दृश्यों एवं चित्रों को देखना, घ्राणेन्द्रिय से इन पुष्पादि सुगंधित पदार्थों को सूंघना, रसेन्द्रिय से षट् रस भोजन एवं अभक्ष्य सेवन की भावना होना तथा भक्षण करना, स्पर्शेन्द्रिय से शयनासन, वस्त्र एवं आभूषण आदि विलासमय भोगों को भोगने की भावना होना ही भोगैच्छा अथवा भोगार्त्त नामक चतुर्थ आर्तध्यान है।
इसका दूसरा नाम निदान भी है। तप-जप के फल रूप में देवेंद्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि ऋद्धि, राज्य की प्राप्ति , इन्द्र पदवी की इच्छा, विद्याधरों का आधिपत्य, धरणेन्द्र के भोगने योग्य भोग, स्वर्ग सम्पदा, स्वर्ग लक्ष्मी, संसार का विपुल वैभव, देवांगना का सुख विलास, पूजा, मान-सन्मान, यशः कीर्ति की कामना, क्रोधाग्नि से दूसरे का अहित करने की भावना, कुलविनाशक भावना की कामना करना ही निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान है।
यह चार प्रकार का आर्तध्यान संसारवर्धक राग-द्वेष-मोहादि से कलुषित जीव को होता है। यह संसारवर्धक, तिर्यचगति का कारण एवं रागद्वेषमोहादि भाव का जनक होने से संसारवृक्ष का बीज है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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