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________________ आर्तध्यान के चार भेद : जैनागम में आर्तध्यान के चार भेद किये गये हैं। (१) अमनोज्ञवियोगचिन्ता, और (२) मनोज्ञ अवियोग चिन्ता, (३) आतंक (रोग) और (४) भोगेच्छा अथवा निदान। (१) अमनोज्ञवियोगचिन्ता : अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श तथा उनके साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर- अग्नि, जल, धतुरा, अफीम आदि का विष, जलचर प्राणी, स्थलचर प्राणी, वनजन्य क्रूर प्राणी सिंह व्याघ्रादि, सर्प, बिच्छु, खटमल, जू आदि, गिरि कन्दरा आदि, तीर, भाला, बी, तलवार आदि शस्त्र, दुष्ट राजा, शत्रु, वैरी, दुर्जन, मद्य, मांस, मंत्र, तंत्र, मारण, मूठ, उच्चाटन आदि दुष्ट प्रयोग, चोर, डाकू आदि का मिलन, भूत, प्रेत, व्यंतरादि देवों के श्रवण मात्र से एवं अन्य विविध प्रकार के वस्तुओं के तथा व्यक्तियों के सुनने देखने, जानने मात्र से ही मन में क्लेश होना एवं इन सबका संयोग होने पर उसके वियोग की सतत चिन्ता करना ही प्रथम अमनोज्ञवियोगचिन्ता नामक आर्तध्यान है। (२) मनोज़अवियोगचिन्ता : पांचों इन्द्रियों के विभिन्न मनोज्ञ विषय एवं मातापिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र, मित्र, स्वजन, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मांडलिक राजा आदि का राज्य वैभव प्राप्त हो, सामान्य राज्य वैभव प्राप्त हो, भोग भूमि के अखंड सुख सौभाग्य की प्राप्ति हो, प्रधान मंत्री, मुख्य सेनापति आदि की पदवियां प्राप्त हो, मनुष्य देव संबंधी कामभोगों की प्राप्ति हो, नवयुवतियों का संयोग हो, पर्यंक पलंग आदि शय्या, अश्व, गज, रथ, कार आदि विविध वाहनों का योग हो, चन्दन, अत्तर, सुगंधित तेल आदि मोहक पदार्थों की प्राप्ति हो, रत्न एवं सुवर्ण जड़ित अनेक प्रकार के आभूषण तथा गहने प्राप्त हो, धन धान्यादि की विपुल प्राप्ति हो - इन सभी पदार्थों एवं वस्तुओं का संयोग होने पर सातावेदनीय कर्म के उदय से उनके वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनका वियोग न हो ऐसा, निरन्तर चिन्तन करना द्वितीय आर्तध्यान है। इसके अतिरिक्त भोगों का नाश, मनोज्ञ इन्द्रियों के विषयों का प्रध्वंस, व्यापारादि में हानि, काल ज्ञानविषयक ग्रन्थ, स्वरादि लक्षणों, ज्योतिष आदि विद्या से अल्प आयु का ज्ञान होने पर चिन्तित होना, स्वजन के छोड जाने से मूर्च्छित होना, मित्रादि के वियोग से दुःखी होना, मृत्यु का चिन्तन करना, धन, संपत्ति का अपहरण होने पर खिन्न होना, यश, कीर्ति, मान, सन्मान के लिए प्रयत्नशील रहना। प्रतिष्ठा के लिए धनादि का अधिक व्यय करना, दुर्बलता एवं दरिद्रता के कारण पश्चात्ताप करना, मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना और उनकी प्राप्ति के बाद उनके वियोग की निरन्तर चिन्ता करना ही मनोज्ञ अवियोग चिन्ता नामक द्वितीय आर्तध्यान है। ध्यान के विविध प्रकार ३५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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