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अध्याय ५
ध्यान के विविध प्रकार
चतुर्थ अध्याय का पंचम अध्याय से घनिष्ठ संबंध है। ध्यान का यथार्थ स्वरूप उसके भेद-प्रभेदों को जाने बिना स्पष्ट नहीं हो सकता। अतः इसी बात को लक्ष्य में लेकर प्रस्तुत अध्याय में ध्यान के भेद प्रभेदों का आगमिक ग्रन्थ, आगमिक टीका एवं आगमेतर ग्रन्थों के आधार से वर्णन किया जा रहा है।
जगत में जीवों की संख्या अनन्त है और सभी सुख की इच्छा करते हैं। यद्यपि सुख की इच्छा सबकी एक-सी नहीं है। तथापि विकास की न्यूनाधिकता या कमीबेशी के अनुसार संक्षेप में जीवों के और उनके सुख के दो वर्ग किये जा सकते हैं-१ अल्प विकासवाले प्राणी, जिनके सुख की कल्पना बाह्य साधनों तक ही सीमित है। वे प्रेय मार्ग में ही आनंद मानते हैं जब कि- २ अधिक विकासवाले प्राणी, जो बाह्य (भौतिक साधनों) संपत्ति में सुख न मानकर सिर्फ आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति में ही सुख मानते हैं। वे श्रेय मार्ग के पुजारी होते हैं। इन दोनों वर्ग के माने हुए सुख में अन्तर इतना ही है कि पहला सुख पराधीन है और दूसरा सुख स्वाधीन है। पराधीन सुख को काम और स्वाधीन सुख को मोक्ष कहते हैं। ये दो ही पुरुषार्थ हैं। धर्म और अर्थ तो उसके साधन हैं। साधन के बिना साध्य सिद्ध नहीं हो सकता। इन दोनों में कार्य-कारणभाव समाविष्ट है। इन दो साधनों के द्वारा ही प्राणी असंख्य प्रकार की विचारधारा में परिणमन करता रहता है। चाहे विचारधारा शुभ हो या अशुभ हो। किन्तु आत्मा का स्वभाव परिणमनशील है। शुभाशुभ असंख्य विचार धाराओं को समझना अत्यधिक कठिन होने के कारण ज्ञानियों ने उन्हें चार भागों में विभाजित किया हैं। वे चार भाग ही ध्यान की संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
ध्यान का आगमिक वर्गीकरण : आगम में मुख्यतः ध्यान के चार ही भेद बताये हैं।' (१) आर्तध्यान (२) रौद्रध्यान (३) धर्मध्यान और (४) शुक्लध्यान।
आगम के अनुसार इन चार ध्यानों के क्रमशः ८+८+१६+१६ = ४८ भेद माने गये हैं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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