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७८. मिच्छादो सद्दिट्ठी असंख - गुण - कम्म - णिज्जरा होदि।
'तत्तो अणुवय - धारी तत्तो य महव्वई णाणी।। पढम - कसाय - चउण्ह विजोजओ तह य खवय - सीलो या दंसण- मोह -तियस्स य तत्तो उवसमग-चत्तारि।। खवगो य खीण - मोहो सजोइ - णाहो तहा अजोइया। एदे उवरि उवरिं असंख - गुण - कम्म - णिज्जरया।।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. १०६-१०८ ७९. षट् खण्डागम धवला टीका, (भाग ५) पृ. ७९-८० । ८०. (क) अघाइचउक्कविणासफल। तदियसुक्कज्झाणं जोगणिरोह
फलं...... सेलेसिय अद्धाए..... 'ज्झाण'...... सव्वकम्मविप्पमुक्को एकसमएण सिद्धिं गच्छदि।।
षट् खण्डागम, धवला टीका (भाग ५) पृ.८८ (ख) परिनिव्वाणं परिल्लाणं।
ध्यान शतक गा. ९४ (ग) सिद्धान्तसार संग्रह ११/८०-८४ (घ) सोऽथ मनोवागुच्छ्वासकाययोगक्रियार्थविनिवृत्तः।
अपरिमितनिर्जरात्मा संसारमहार्णवोत्तीर्णः।। ईषद्मस्वाक्षरपंचकोद्विरणमात्रतुल्यकालीयाम्। संयमवीर्याप्तबलः शैलेशीमेति गतलेश्यः।।
प्रशमरतिप्रकरणम् गा. २८२-२८३ (ङ) सर्वार्थ सिद्धि ९/४४ ८१. नकसाय समुत्थेहि य वाहिज्जइ माणसेहि दुक्खेहि।
ईसा - विसाय - सोगाइएहिं झाणोवगयचित्तो।। सीयायवाइएहिं य सारीरेहिं सुबहुप्पगारेहि। झाण सुनिच्चलचित्तो न वहिज्जइ निज्जरापेही।।
ध्यान शतक गा.१०३-१०४
८२. अट्टेण तिरिक्खगई रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं।
धम्मेण देवलोयं सिद्धिगई सुक्कज्झाणेणं।।
ध्यान शतक गा.६
८३. (क) रागस्य हेतवो ये ये, भजन्ते द्वेषहेतुताम्।
सानुकूल प्रतिकूल मनोवृत्तिप्रसंगतः।। रागरूपामनोवृत्ति द्वेषरूपा तथैव च।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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