SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रियायोग की प्रक्रिया ही बताई है। 'ध्यान दीपिका' में विजयकेशरसूरि ने, 'अध्यात्म तत्त्वालोक' में पुण्यविजयजी ने, 'योग- प्रदीप' में मंगलविजयजी ने, 'ध्यान- दीपिका' में सकलचंदजी ने तथा 'योग- दीपक' में बुद्धि सागरसूरि ने यमादि अष्टांगयोग का जैन धर्मानुसार विवेचन किया है। अष्टांगयोग के अतिरिक्त भावनायोग, ध्यानयोग आदि विभिन्न योगों की प्रक्रिया का विवेचन मिलता है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः यम नियम आदि का पालन और ज्ञानज्ञक्रियायोग का आचरण ही ध्यान की प्रक्रिया है । इन प्रक्रिया से ध्यान कोई अलग चीज नहीं है। ध्यान तो आत्मा की एक अवस्था है। उस अवस्था तक पहुँचने के लिये नाना प्रकार के उपाय बताये गये हैं। उन उपायों को ग्रन्थों में संकलित करके रखने से आत्मा की यह उच्च कोटि की ध्यानावस्था प्राप्त नहीं हो सकती है। उसके लिये तो आचरण की आवश्यकता है। वर्तमान में 'योगासन' 'विपश्यना' और 'प्रेक्षा' इन पद्धतियों द्वारा ध्यानप्रक्रिया का प्रयोगात्मक दृष्टि से प्रतिपादन किया जा रहा है। बाह्य निरीक्षण की अपेक्षा आध्यात्मिक अन्तर्निरीक्षण को अधिक महत्व दिया जाता है। प्राचीन एवं मध्ययुगीन ध्यान प्रक्रिया का स्वरूप वर्तमान में प्रयोगात्मक दृष्टि से कम प्रतीत होता है। सभी का लक्ष्य भौतिक साधन सामग्री जुटाने में लगा हुआ है, आध्यात्मिकता से दूर हट रहा है। आध्यात्मिक बल प्राप्त करने के लिये गुरु चरण से अरिहंत और सिद्ध को ही अपना ध्येय बनायें। यही सच्चा ध्यानयोग है। १ २. ३ ३२२ संदर्भ सूची नालंदा विशाल शब्द सागर (सं. श्री नवलजी) पृ. ६५५ (क) संस्कृत - शब्दार्थ - कौस्तुभ (सं. स्व. चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा) पू. ५७५ (ख) नालंदा विशाल शब्द सागर, पृ. ६५५ (क) (ध्यै + ल्युट्) "ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते” । (ग) - (ख) "ध्यै- ध्यायते चिन्त्यतेऽ नेन तत्त्वमिति ध्यानम्, एकाग्र चित्त निरोध इत्यर्थः । "ध्यै चिन्तायाम्” Jain Education International संस्कृत - शब्दार्थ - कौस्तुभ पृ. ५७५ अभिधान राजेन्द्रकोश भाग ४ पृ. १६६२ ध्यान योग रूप और दर्शन (सं. डॉ. नरेन्द्र भानावत) पृ. ३० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्व ध्यायते वस्तु अनेनेति ध्यानम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy