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________________ मध्ययुग में इस ध्यान परम्परा से जन मानस बहुत प्रभावित हो गया जिसके फलस्वरूप जैनाचायों ने भी अपने ग्रन्थों में पिण्डस्थादि ध्यान को स्वीकार किया। ग्यारहवीं शताब्दी के सोमदेवसूरि ने 'योगसार' ग्रन्थ में योग संबंधी चर्चा की है। ग्यारहवीं शताब्दि के ग्रन्थों में२०६ पार्थिवी, वारुणी, तेजसी, वायवी, और तत्त्व रूपवती (तत्त्व भ) इन पांच प्रकार की धारणाओं का उल्लेख मिलता है। तत्त्वानुशासन में सिर्फ तीन ही धारणाओं का उल्लेख मिलता है। बारहवीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' ग्रन्थ में अष्टांगयोग, रत्नत्रय एवं पाँच धारणाओं का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त अपने मौलिक चिन्तन धारा से मन के चार प्रकार वर्णित किए हैं - विक्षिप्तमन, यातायात मन, श्लिष्ट मन और सुलीन मना तेरहवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक के ग्रन्थों में२०७ आध्यात्मिक तत्त्वों के रहस्यों का व्यवस्थित रूप से वर्णन किया गया है। उनका कथन है कि जप, तप, संयम, मौन आदि नाना प्रकार की धार्मिक क्रियाओं से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। किन्तु सम्यक् प्रक्रिया से वश किये मन द्वारा ही मोक्ष मिल सकता है। इस काल में मन को एकाग्र करने पर विशेष बल दिया गया है। क्योंकि मन के साथ ही पुण्यपाप का संबंध रहा है। मनोनिग्रह के बिना की हुई क्रिया नरकगामी बनती है। इसलिये मनोनिग्रह - मन की समाधि ही योग का कारण है। योग तप का उत्कृष्ट साधन है। शिवसुखलता का मूल है। मनोनिग्रह के लिये स्वाध्याय, योगवहन, चारित्रक्रियाप्रवृत्ति, बारह भावना, तीन योग के शुभाशुभ कार्य के फल का चिंतन आदि अनेक उपाय हैं। मनोगुप्ति ही इस युग का ध्यान है। मनोगुप्ति के बाद ही वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति की साधना हो सकती है। निरवद्य वचन बोलें। सावधवचन बोलने से वसुराजा की तरह नरक में जाना पड़ता है। सतत निरवद्य वचन बोलना ही वचनगुप्ति है। कछुवे की तरह काय संवर करनेवाला ही ध्येय को प्राप्त कर सकता है। मन वचन काय की प्रशस्त प्रवृत्ति ही मोक्ष का कारण है। इस प्रकार तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक का काल मन वचन काय गुप्ति एवं कषाय गुप्ति के आध्यात्मिक रहस्यों की पद्धति का काल है। इन शताब्दियों में मुख्यतः मनोनिग्रह की प्रक्रिया पर अधिक बल दिया गया है। वर्तमानयुग सोलहवीं शताब्दी से लेकर आगे की बीसवीं सदी तक यमादि अष्टांग योग और ज्ञान और क्रियायोग के रूप में आगमकालीन एवं मध्यकालीन ध्यानपरम्परा का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है।२०८ विनयविजयजी ने 'शान्तसुधारस' एवं 'अध्यात्मोपनिषद', 'अध्यात्मसार', 'ज्ञानसार', 'योगावतार द्वात्रिंशिका' इन ग्रन्थों में उपाध्याय यशोविजयजी ने, भावनायोग एवं अध्यात्मयोग की विभिन्न प्रक्रिया तथा ज्ञान जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप ३२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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