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________________ योग युग (मध्य युग) विक्रम की आठवीं शताब्दि से, आगमकथित ध्यानयोग, समाधियोग, भावनायोग, तपोयोग, इन सब प्रक्रियाओं का स्वरूप ध्यान, समाधि और समत्व के रूप में प्रचलित था, यह जैन परम्परा में एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ। शब्द परिवर्तन क्रम से मूल ध्येय में कोई परिवर्तन नहीं आया किन्तु मध्ययुग में तप, ध्यान, समाधि भावना इन सभी शब्दों का एकार्थवाचक 'योग' शब्द रखा गया। 'योग' शब्द को जितना उत्कर्ष महर्षि पतंजलि के योगदर्शन के बाद मिला उतना पहले कभी भी नहीं मिला था। उनके समकालीन जैनाचार्यों में हरिभद्रसरि का नाम अधिक प्रचलित है।२०२ उन्होंने मोक्ष प्राप्ति में सहायक सभी धार्मिक कार्य को 'योग' संज्ञा दी। जैन परपम्परा के योग के समन्वय कर्ता में हरिभद्र का नाम अग्रण्य है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में२०३ इच्छा योग, शास्त्र योग, सामर्थ्ययोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग, समतायोग, वृत्तिसंक्षययोग, मित्रा, तारा आदि आठ दृष्टियां एवं ज्ञानयोग और क्रियायोग में प्राचीन कालीन (आगमयुगीन) समस्त ध्यान की मौलिक पद्धति का 'योग' शब्द में समावेश कर दिया है। किन्तु हमारी धारणा के अनुसार 'योग' शब्द में ध्यान साधना पद्धति को अभिहत नहीं किया जा सकता, क्योंकि ध्यान शब्द को किसी भी दृष्टि से जैन परम्परा से अलग नहीं किया जा सकता, वह तो अपने आप में मौलिक तत्त्व है। सभी प्रक्रिया में ध्यान मुख्य है। किन्तु काल प्रभाव के कारण मौलिक चिन्तन धारा में परिवर्तन आने लगा। जिसके फलस्वरूप नवीं शताब्दी के आचार्य जिनसेन के 'महापुराण' में यत्र-तत्र योग-साधना पद्धति का निरूपण स्पष्ट हो रहा है। ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य रामसेन के 'तत्त्वानुशासन नामक ध्यान शास्त्र' में एवं शुभाचन्द्राचार्य के 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ में अष्टांग योग का विवेचन मिलता है। इस शताब्दी में जैन परम्परा (धर्म) अष्टांगयोग, हठयोग और तन्त्रशास्त्र से अधिक प्रभावित मिलती है। आगमिक युग में जो धर्मध्यान था वही इस युग में (काल में) पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत इन चार प्रकार के रूपों में वर्गीकृत हो गया। इस वर्गीकरण पर तंत्रशास्त्र का प्रभाव प्रतीत होता है। नवचक्रेश्वरतंत्र में पिण्ड, पद, रूप और रूपातीत के ज्ञाता को गुरु कहा है। गुरु गीता में पिण्ड का अर्थ कुण्डलिनी शक्ति, पद का अर्थ हंस, रूप का अर्थ बिन्दु और रूपातीत का अर्थ निरंजन किया गया है। २०४ जैनाचार्यों ने पिण्ड -पद - रूप- रूपातीत-इस वर्गीकरण को स्वीकार तो किया किन्तु उनकी अपनी मौलिक परिभाषा भिन्न ही है। चैत्यवंदन भाष्य२०५ में पिण्डस्थ, पदस्थ, और रूपातीत ये तीन प्रकार माने गये हैं। इनका अर्थ शेष ग्रन्थों से भिन्न है। भाष्यकारों के कथनानुसार छद्मस्थ, केवली और सिद्ध परमात्मा ये तीन ही ध्येय रूप हैं। इसलिये एतद् विषयक ध्यान को क्रमशः पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपातीत संज्ञा दी। ३२० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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