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सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की साधना ही ध्यानयोग की सच्ची साधना है। इन तीनों का एक ही ग्रन्थ में प्रतिपादन करने का श्रेय उमास्वाति (वि. २-३ श.) को ही है। यह आगम साहित्य और उत्तरवर्ती साहित्य के मध्य की कड़ी है। जिसमें ध्यान परंपरा का आगमानुसार ही वर्णन है। किन्तु उसमें आगमिक विधितंत्र का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। तदनन्तर ध्यान साधना की प्रक्रिया का स्वरूप नियुक्ति में मिलता है। उसके बाद जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के 'ध्यान शतक' में आगमिक परंपरानुसार आर्त-रौद्र-धर्म शुक्ल इन चारों ध्यानों का विस्तृत विवेचन है। धर्म और शुक्लध्यान की साधना के लिये बारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। नियुक्ति और ध्यानशतक में जैन परंपरा के ध्यान का स्वतंत्र चिंतन परिलक्षित होता है। बाद में पूज्यवाद देवनंदि (४-५ शताब्दी) के 'समाधि-तंत्र' और 'इष्टोपदेश' में आध्यात्मिक ज्ञान को ध्यान कहा है। उसमें आत्मा की तीन अवस्थाओं का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, का वर्णन है। ज्ञान दर्शन चारित्र स्वरूप आत्मा का ज्ञान ही केवलज्ञानमय परम सुख को प्राप्त कराता है। उसके लिये सुद्रव्य -क्षेत्र-काल-भाव (स्वभाव) की सामग्री ही निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि कराने में सहायक है। इन द्रव्यादि सुयोग्य साधनों की उपलब्धि से अनशनादि बाह्य और आभ्यन्तर तप, दश लक्षण धर्म, अनित्यादि द्वादश भावना, परीषह जय और चारित्र आदि के सम्यग् अनुष्ठानों से ध्यानाग्नि द्वारा कर्मेधन को जलाकर स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति करते हैं।२०१
इस प्रकार भद्रबाहु के बाद अन्य आचार्यों ने ध्यान संवर योग के द्वारा ध्यान की परम्परा चालू की।
आगमकालीन ध्यान परंपरा की प्रक्रिया कुंदकुंदाचार्य, आचार्य उमास्वाती, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों तक चलती रही। किंतु उसके बाद उसमें परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो गई। यों तो कुंदकुंदाचार्य के पहले से ही परिवर्तन का प्रारम्भ हो गया
था।
ध्यान की पद्धति का अवरोध वीर निर्वाण की कुछ शताब्दियों के बाद ही शुरू हो गया था। बाद में संघ-शक्ति के विकास की भावना ने बल पकड़ा, जिसके फलस्वरूप व्यवहार धर्म या तीर्थ धर्म की प्रमुखता बढ़ी और आध्यात्मिक शक्ति के विकास की प्रक्रिया मंद हो गई तथा ध्यान की पद्धति गौण हो गई। ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय का मार्ग सरल बन गया। निश्चय धर्म के स्थान पर व्यवहार धर्म का प्रभुत्व बढ़ा। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की अपेक्षा लोक संग्रह को अधिक महत्व मिला, तब से जैन शासन में ध्यान की धारा अवरुद्ध होकर बहने लगी। श्रुतसागर के पारगामी मुनियों ने ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटन किया था, वही परम्परा अपनी मौलिक सम्पदा से वंचित होने लगी।
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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