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________________ में भरे हुए अनाज की तरह तप संयम की साधना से आत्मा को ध्याते हुये विचरण करते थे। १९४ आगमकालीन ध्यान पद्धति को हम निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त करते हैं - १. निरीक्षणात्मक पद्धति, २. समीक्षणात्मक पद्धति, ३. विश्लेषणात्मक पद्धति और ४. प्रयोगात्मक पद्धति। इन चारों पद्धतियों का स्वरूप भगवान महावीर की शिष्य संपदाओं में उपलब्ध होता है। क्योंकि उनमें कितनेक केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी एवं कितनेक विभिन्न २८ प्रकार की लब्धियों के धारक थे। ध्यान साधना के बिना ये लब्धियाँ संभव नहीं।२९५ आगमकालीन मौलिक ध्यान साधना पद्धति का क्रम भगवान महावीर के निर्वाण की दूसरी शताब्दी तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। चतुर्दशपूर्वधरों में अन्तिम पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु को माना जाता है। उन्होंने नेपाल में बारह वर्ष तक 'महाप्राण'१९६ ध्यान की साधना की। तदनन्तर आचार्यों की ध्यान पद्धति को ध्यान संवर योग' अथवा 'सर्वसंवरयोगध्यान' कहा गया है। १९७ दूसरी शताब्दी के बाद केवलज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, परम अवधिज्ञान, यथाख्यात चारित्र, सूक्ष्मसंपराय चारित्र आदि विच्छिन्न हो गये और आचार्य भद्रबाहु के बाद चतुर्दशपूर्वो का ज्ञान भी विच्छिन्न हो गया। साथ ही साथ आगमकालीन ध्यान पद्धति के विच्छेद की चर्चा भी शुरू हो गई। आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य ने 'मोक्षपाहुड' में लिखा है कि 'कुछ मुनि का कथन है कि पाचवें आरे में ध्यान नहीं हो सकता। यह काल ध्यान के लिये उचित नहीं है"।१९८ तभी से ध्यान के विषय में दो धारायें प्रचलित हो गई - १. निषेधक और २. समर्थका निषेधक का कथन था कि वर्तमान में ध्यान नहीं हो सकता और समर्थक का कथन था कि उत्तम संहनन के अभाव में शुक्लध्यान नहीं हो सकता किन्तु धर्मध्यान हो सकता है। उमास्वाती, पुष्पदन्त, भूतबलि, वीरसेनाचार्य, जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण आदि द्वितीय धारा के समर्थक थे। यह निषेध और समर्थन ध्यान परम्परा आचार्य रामसेन (वि. सं. ९-१० शताब्दी) तक चलती रही। उन्होंने "तत्त्वानुशासन नामक ध्यान शास्त्र" ग्रन्थ में ९९ कुंदकुंदाचार्य के शब्दों को दोहराया है। ___आचार्य कुंदकुंदाचार्य (वि. १ शताबी) ने अपने ग्रन्थों में आगमकालीन ध्यान साधना का नया क्षेत्र खोला, उनके कथनानुसार शुद्ध प्रतिक्रमण ही ध्यान है। जो अनादिकालीन मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र की भावना से प्रतिक्रमण करता है वह ध्यान है। व्यवहार प्रतिक्रमण की अपेक्षा निश्चय प्रतिक्रमण ही ध्यान है। राग द्वेष मोह एवं योगों से रहित शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली संवरयोग की साधना से ध्यानाग्नि उत्पन्न होती है। यही सच्चा भावप्रतिक्रमण है, जो ध्यानावस्था को प्राप्त होता है।२०० ३१८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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