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उच्छ्वास, अयशः नाम, २ विहायोगति, शुभ नाम, अशुभ नाम, स्थिर नाम, अस्थिर नाम, देवगति, देवानुपूर्वी, प्रत्येक नाम, सुस्वर नाम और दुःस्वर नामकर्म तथा दो वेदनीय में से एक वेदनीय) का और अंत समय में १३ प्रकृतियों (वेदनीय, आदेयनाम, पर्याप्त नाम, त्रस नाम, बादर नाम, मनुष्यायु, सुयशनाम, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, सुभगनाम, उच्च गोत्र, पंचेन्द्रियजाति और तीर्थंकर नाम कर्म) का क्षय करके निराकार, निरंजन होकर नित्य सुख के धाम मोक्ष को प्राप्त करते हैं। सिद्ध परमात्मा की पूर्वप्रयोग से, असंग भाव से, बंध के विमोक्ष से और स्वभाव के परिणाम से ऊर्ध्वगति होती है। क्रमशः इन सबके लिये कुम्हार का चक्र, झूला एवं बाण की गति, तुम्बे का मल हटते ही, एरण्ड का बीज आदि के उदाहरण से सिद्ध परमात्मा के स्वाभाविक ऊर्ध्वगति का बोध कराया गया है।
इस प्रकार से क्षपक श्रेणि १८५ का स्वरूप समझना चाहिये। उपशम श्रेणि में नौवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान और क्षपक श्रेणी में नौवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक गुणस्थान होते हैं इस प्रकार ध्यान और गुणस्थान का विवेचन समाप्त हुआ। (इस प्रकार ध्यान का गुणस्थान के साथ संबंध है)
(३) ध्यान और कायोत्सर्ग
मानसिक, वाचिक और कायिक ऐसे तीन प्रकार के ध्यान माने जाते हैं। उनमें कायिक ध्यान को कायोत्सर्ग कहा जाता है। काय+उत्सर्ग इन दो शब्दों के योग से कायोत्सर्ग शब्द बना है। काय शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं जैसे कि काय, शरीर, देह, बोन्दि, चय, उपचय, संघात, उच्छ्रय, समुच्छ्रय कलेवर, भस्त्रा, तनु और पाणु तथा उत्सर्ग के व्युत्सर्जन, उज्झन, अवकिरण, छर्दन, विवेक, वर्जन, त्यजन, उन्मोचना, परिशातना और शातता अनेक पर्यायवाची शब्द हैं। कायिक ध्यान के बाद ही मानसिक व वाचिक ध्यान हो सकता है। मानसिक एकाग्रता के लिये कायिक ध्यान अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि कायिक ध्यान की सफलता के मूल तत्त्व श्वास की मंदता और शरीर की शिथिलता है। शरीर की शिथिलता और श्वास की मंदता जितनी अधिक होती है उतना ही कायिक ध्यान सफल होता है। शारीरिक और मानसिक तनावों का विसर्जन करके शिथिलीकरण की प्रक्रिया करना ही कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग दो प्रकार का होता है - १. चेष्टा और २. अभिभव । भय मोहनीय कर्म की प्रकृति है । उसका अभिभव (जीतना) करने के लिये ही कायोत्सर्ग किया जाता है, बाह्य कारणों का पराभव करने के लिये नहीं । भय उत्पन्न होने के तीन मूल बताये गये हैं- देव, मनुष्य और तिर्यच संबंधी । उनका अभिभव करने के लिये कायोत्सर्ग नहीं किया जाता है। किन्तु देवसिक आदि क्रियाओं में लगने वाले अतिचारों को (दोष) जानने के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग से देहजाड्यशुद्धि, मतिजाड्यशुद्धि, सुख-दुःख तितिक्षा, अनुप्रेक्षा एवं एकाग्रता की प्राप्ति
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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