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________________ की स्थिति आयुकर्म से अधिक होती है, तो उनके समीकरण के लिए यानी आयुकर्म की स्थिति के बराबर वेदनीय आदि तीन अघातियां कर्मों की स्थिति को करने के लिए समुद्घात करते हैं, जिसे केवलीसमुद्घात कहते हैं। केवलीसमुद्घात से निवृत्त होने के बाद मन, वचन और कायवाला होने से, उनके योगनिरोध करने के लिए तीसरे शुक्लध्यान का उपक्रम करते हैं। यदि आयुकर्म के बराबर ही वेदनीय आदि कमों की स्थिति हो तो समुद्घात नहीं करते हैं। केवलीसमुद्घात की प्रक्रिया का स्वरूप आगे वर्णन करेंगे। __ योग के निरोध का उपक्रम यानी तीसरे शुक्लध्यान की प्रक्रिया ही है सो इस प्रकार है कि सबसे पहले बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग को रोकते हैं, उनके पश्चात् बादर वचनयोग को रोकते हैं और उसके पश्चात् सूक्ष्म काय के द्वारा बादर काययोग को रोकते हैं, उसके बाद सक्ष्म मनोयोग को, उसके पश्चात् सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। इस प्रकार बादर, सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग और बादर काययोग को रोकने के पश्चात् सूक्ष्म काययोग को रोकने के लिए शुक्लध्यान का चतुर्थ भेद सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याते हैं। उस ध्यान में स्थितिघात आदि के द्वारा सयोगी अवस्था के अंतिम समयपर्यंत आयुकर्म के सिवाय शेष कमों का अपवर्तन करते हैं। ऐसा करने से अन्तिम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगी अवस्था के काल के बराबर हो जाती है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि अयोगी अवस्था में जिन कर्मों का उदय नहीं होता है, उनकी स्थिति एक समय कम होती है। योग निरोध का विशेष वर्णन आगे करेंगे। सयोगकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में साता वा असाता वेदनीय में से कोई वेदनीय, औदारिक, तैजस, कार्मण, छह संस्थान, प्रथम संहनन, औदारिक अंगोपांग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपधात, पराघात, उच्छ्वास, शुभ और अशुभ विहायोगति, प्रत्येक,स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण इन तीस प्रकृतियों के उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और उसके अनन्तर समय में अयोगकेवली हो जाते हैं। इसमें शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस अयोगिकेवली अवस्था में व्यपरतक्रियाप्रतिपाती ध्यान को करते हैं। यहां स्थितिघात आदि नहीं होता है, अतः जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो स्थिति का क्षय होने से अनुभव करके नष्ट कर देते हैं, किन्तु जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता, उनका स्तिबुक संक्रम के द्वारा वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करके अयोगी अवस्था के उपान्त समय तक वेदन करते हैं और उपान्त समय में ७२ प्रकृतियों (५ शरीर, ५ बंधन, ५ संघातन, ३ अंगोपांग, ६ संस्थान, ५ वर्ण, ५ रस, ६ संघयण, ८ स्पर्श, २ गंध, नीचगोत्र, अनादेय नाम, दुभग नाम, अगुरुलघुनाम, उपघात, पराघात, निर्माण, अपर्याप्त, ३१४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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