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________________ उक्त क्रम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़नेवाले के लिए बताया है। यदि स्त्री श्रेणि पर आरोहण करती है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करती है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नो कषाय और स्त्रीवेद का क्षपण करती है। यदि नपुंसक श्रेणि आरोहण करता है; तो वह पहले स्त्रीवेद का क्षपण करता है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नो कषाय, और नपुंसकवेद का क्षपण करता है। वेद के क्षपण के बाद संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षपण उक्त प्रकार से करता है। यानी संज्वलन क्रोध के तीन खण्ड करके दो खण्डों का तो एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खंड को संज्वलन मान में मिला देता है। इसी प्रकार मान के तीसरे खण्ड को माया में मिलाता है और माया के तीसरे खंड को लोभ में मिलाता है। प्रत्येक के क्षपण करने का काल अन्तर्मुहूर्त है और श्रेणि काल अन्तर्मुहूर्त है किन्तु वह अन्तर्मुहूर्त बड़ा है। ज्वलन लोभ के तीन खंड करके दो खंडों का तो एक साथ क्षपण करता है किन्तु तीसरे खंड के संख्यात खंड करके चरम खंड के सिवाय शेष खंडों को भिन्न-भिन्न समय में खपाता है और फिर उस चरम खंड के भी असंख्यात खंड करके उन्हें दसवें गुणस्थान में भिन्न-भिन्न समय में खपाता है। इस प्रकार लोभ कषाय का पूरी तरह क्षय होने पर अनन्तर समय में क्षीण कषाय हो जाता है। क्षीणकषाय गुणस्थान में क्षपक श्रेणी आरोहक जीव को एकत्व-वितर्क- अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान की अवस्था प्राप्त होती है। इस ध्यानावस्था में जीव को स्वस्वरूप का अनुभव होने से समरसी भाव उत्पन्न होता है। क्षीण कषाय गुणस्थान के काल के संख्यात भागों में से एक भाग काल बाकी रहने तक मोहनीय के सिवाय शेष कर्मों में स्थितिघात आदि पूर्ववत् होते हैं। तथा दूसरे शुक्लध्यान के योग से कर्मसमूह का नाश करते हुए ध्यानयोगी पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अंतराय और दो निद्रा (निद्रा और प्रचला इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति को क्षीण कषाय के काल के बराबर करता है किन्तु निद्राद्विक की स्थिति को एक समय कम करता है। इनकी स्थिति के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात आदि कार्य बन्द हो जाते हैं और शेष प्रकृतियों के होते रहते हैं। -क्षीण कषाय के उपान्त समय में निद्राद्विक का क्षय करता है और शेष चौदह प्रकृतियों का अंतिम समय में क्षय करता है और उसके अनन्तर समय में वह सयोगीकेवली (केवलज्ञानी) हो जाता है। यह सयोगीकेवली अवस्था जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि काल की होती है। इस काल में भव्य जीवों के प्रतिबोधार्थ देशना, विहार आदि करते हैं। इस अवस्था में शुद्ध क्षायिक भाव, उत्कृष्ट क्षायिक सम्यक्त्व तथा निश्चय क्षायिक यथाख्यात चारित्र होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के यदि वेदनीय आदि कर्मों जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only ३१३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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