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खंड कर-करके खपाता है। जब उसके अंतिम स्थितिखण्ड को खपाता है तब उस क्षपक को कृतकरण कहते हैं। इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है।
___ यदि क्षपक श्रेणि का प्रारंभ बद्धायु जीव करता है और अनंतानुबंधी के क्षय के पश्चात् उसका मरण हो तो उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनंतानुबंधी का बंध करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनन्तानबंधी नियम से बंधती है। किंतु मिथ्यात्व का क्षय हो जानेपर पुनः अनंतानुबंधी का बंध नहीं होता। बद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता है तो अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोह का क्षपण करने के बाद वह वहीं ठहर जाता है। चारित्र मोहनीय के क्षपण करने का प्रयत्न नहीं करता है। यदि अबद्धायु होता है तो वह उस श्रेणि को समाप्त करके केवलज्ञान प्राप्त करता है। अतः अबद्धायुष्क सकल श्रेणि को समाप्त करने वाले मनुष्य के तीन आयु देवायु, नरकायु और तीर्यचायु का अभाव तो स्वतः ही हो जाता है। तथा पूर्वोक्त क्रम से अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय चौथे आदि चार गुणस्थानों में कर देता है।
__इस प्रकार दर्शन मोह सप्तक का क्षय करने के पश्चात् चारित्रमोहनीय का क्षय करने के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है। अपूर्वकरण में स्थितिघात आदि के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क कुल आठ प्रकृतियों का इस प्रकार क्षय किया जाता है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है। अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जाने पर -स्त्यानदित्रिक, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिथंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय त्रिक ये चार जातियां, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति उद्वलना संक्रमण के द्वारा उद्वलना होने पर पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है और उसके बाद गुणसंक्रमण के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों में उनका प्रक्षेप कर-करके उन्हें बिल्कुल क्षीण कर दिया जाता है। क्योंकि क्षपक मुनि अनिवृत्तिगुणस्थान के नौ विभाग में से प्रथम विभाग में उपरोक्त सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है। द्वितीय विभाग में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन दोनों के आठ कषायों का अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है। ऊसके पश्चात् नौ नोकषाय और चार संज्वलन कषायों में अन्तरकरण करता है। फिर क्रमशः तीसरे विभाग में नपुसंकवेद, चौथे विभाग में स्त्रीवेद और पांचवें विभाग में हास्यादि छह नोकषायों का क्षपण करता है और उसके बाद शेष चार विभागों में क्रमशः आत्मा की अत्यधिक विशुद्धि होने के कारण प्रथम पुरुषवेद, तदनंतर संज्वलन क्रोध, मान और माया का क्षपण करता है, अर्थात् पुरुषवेद के तीन खण्ड करके दो खण्डों का एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलन क्रोध में मिला देता है।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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