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उपशम और क्षयोपशम में अन्तर :- क्षयोपशम उदय में आये हुए कर्मदलिकों के क्षय और सत्ता में विद्यमान कर्मों के उपशम से होता है। क्षयोपशम में घातक कर्मों का प्रदेशोदय रहता है और उपशम में किसी भी तरह का उदय नहीं- न तो प्रदेशोदय और न रसोदय। क्षयोपशम में प्रदेशोदय होने पर भी सम्यक्त्व आदि का घात न होने का कारण यह है कि उदय दो प्रकार का है - फलोदय और प्रदेशोदय। लेकिन फलोदय होने से गुण का घात होता है और प्रदेशोदय के अत्यन्त मंद होने से गुण का घात नहीं होता है। इसीलिए उपशम श्रेणि में अनन्तानुबंधी आदि का फलोदय और प्रदेशोदय रूप दोनों प्रकार का उपशम माना जाता है। १८४
क्षपक श्रेणि उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि में अंतर :- उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि में यह अंतर है कि इन दोनों श्रेणियों के आरोहक मोहनीय कर्म के उपशम और क्षय करने के लिए अग्रसर होते हैं। लेकिन उपशम श्रेणि में तो प्रकृतियों के उदय को शांत किया जाता है, प्रकृतियों की सत्ता बनी रहती है और अन्तर्मुहूर्त के लिए अपना फल दे सकती है किन्तु क्षपक श्रेणि में उनकी सत्ताही नष्ट कर दी जाती है, जिससे उसके पुनः उदय होने का भय नहीं रहता है। इसी कारण क्षपक श्रेणि में पतन नहीं होता है। इन दोनों श्रेणियों में दूसरा अंतर यह है कि उपशम श्रेणि में सिर्फ मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का ही शमन होता है लेकिन क्षपक श्रेणि में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के साथ नाम कर्म की कुछ प्रकृतियों और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय कर्म की प्रकृतियों का भी क्षय होता है।
क्षपक आरोहक जीव अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय, मित्र मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, तीन आयु, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, स्त्यानदित्रिक, उद्योत नाम, तिर्यचद्विक, नरकट्टिक, स्थावरद्विक, साधारण नाम, आतप नाम, आठ (दूसरी और तीसरी) कषाय, नपुंसक वेद, स्त्री वेद तथा हास्यादि षट्क, पुरुषवेद, संज्वलन कषाय, दो निद्रायें, पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण इन प्रकृतियों का क्षय करके केवलज्ञानी होता है। क्षपक श्रेणि में प्रकृतियों के क्षय का क्रम इस प्रकार है
__ आठ वर्ष से अधिक आयु वाला उत्तम संहनन का धारक, चौथे, पांचवें, छठे अथवा सातवें गुणस्थानवी मनुष्य क्षपक श्रेणि प्रारंभ करता है। सबसे पहले वह अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का एक साथ क्षय करता है और उसके शेष अनंतवें भाग को मिथ्यात्व में स्थापन करके मिथ्यात्व और उस अंश का एक साथ नाश करता है। उसके बाद इस प्रकार क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करता है।
जब सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति एक आवलिका मात्र बाकी रह जाती है, तब सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण बाकी रहती है। उसके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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