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________________ उपशम श्रेणि में जीव के भावों को कलुषित करने वाला प्रधान कर्म मोहनीय शांत कर दिया जाता है। अपूर्वकरण आदि परिणाम जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे मोहनीय कर्म की धूलिरूपी उत्तर प्रकृतियों के कण एक के बाद एक उत्तरोत्तर शांत हो जाते हैं। इस प्रकार से उपशम की गई प्रकृतियों में न तो स्थिति और अनुभाग को कम किया जा सकता है और न बढाया जा सकता है। न उनका उदय या उदीरणा हो सकती है और न उन्हें अन्य प्रकृति रूप ही किया जा सकता है। १८० किन्तु यह उपशम तो अन्तर्मुहूर्त काल के लिए किया जाता है। अतः दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का उपशम करके जब जीव ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचता है तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशम हुई कषायें अपना उद्रेक कर बैठती हैं। जिसका फल यह होता है कि उपशम श्रेणि का आरोहक जीव जिस क्रम से ऊपर चढा था, उसी क्रम से नीचे उतरना शुरू कर देता है और उसका पतन प्रारंभ हो जाता है। उपशांत कषायवाले जीव का पतन अवश्यंभावी है। उपशम श्रेणि आरोहक जीव यदि काल (मरण) कर लेता है तो अहमिन्दों में उत्पन्न होता है और यदि दीर्घायु वाला होता है तो उपशान्त मोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म को उपशांत करता है। १८१ __ ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशम श्रेणि आरोहक उतरते-उतरते सातवें या छठे गुणस्थान में ठहरता है और यदि वहां से भी अपने को संभाल नहीं पाता है तो पांचवें और चौथे गुणस्थान में पहुंचता है। यदि अनंतानुबंधी का उदय आ जाता है तो सासादन सम्यग्दृष्टि होकर पुन्हा मिथ्यात्व में पहुंच जाता है। १८२ लेकिन यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि यदि पतनोन्मुखी उपशम श्रेणि का आरोहक छठे गुणस्थान में आकर संभल जाता है तो पुनः उपशम श्रेणि चढ़ सकता है। क्योंकि एक भव में दो बार उपशम श्रेणि चढ़ने का उल्लेख पाया जाता है। परंतु जो जीव दो बार उपशम श्रेणि चढ़ जाता है, वह जीव उसी भव में क्षपक श्रेणि का आरोहक नहीं बन सकता। जो एक बार उपशम श्रेणि चढ़ता है वह कार्मग्रंथिक मतानुसार दूसरी बार क्षपक श्रेणि भी चढ़ सकता है, किन्तु सैद्धांतिक मतानुसार तो एक भव में एक जीव एक ही श्रेणि चढ़ सकता है, और भी ऐसा कहा जाता है कि संपूर्ण संसारचक्र में एक जीव को चार बार ही उपशम श्रेणि होती है। १८३ उपशम श्रेणि में भी अनन्तानुबंधी आदि का उपशम किया जाता है। वेदक सम्यक्त्व, देश चारित्र और सकल चारित्र की प्राप्ति उक्त प्रकृतियों के क्षयोपशम से होती है। अतः उपशम श्रेणि का प्रारंभ करने से पहले उक्त प्रकृतियों का क्षयोपशम रहता है, न कि उपशम। इसीलिए उपशम श्रेणि में अनंतानुबंधी आदि के उपशम को बतलाया है। ३१० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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