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________________ उपशम करना प्रारंभ करता है। संज्वलन माया की प्रथम स्थिति में 'समय कम तीन' आवलिका शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया के दलिकों का संज्वलन माया में प्रक्षेप नहीं करता। किन्तु संज्वलन लोभ में प्रक्षेप करता है और एक आवलिका शेष रहने पर संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो जाता है। उस समय में संज्वलन माया की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका और 'समय कम दो' आवलिका में बांधे गये ऊपर की स्थितिगत दलिकों को छोड़कर शेष का उपशम हो जाता है। उसके बाद 'समय कम दो' आवलिका में संज्वलन माया का उपशम करता है। जब संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का पिच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन लोभ की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम स्थिति करता है। लोभ का जितना वेदन काल होता है, उसके तीन भाग करके - १) अश्वकरणाद्धा, २) किट्टीकरणाद्धा और ३) किट्टीवेदनाद्धा, उनमें से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थिति का काल रहता है। प्रथम विभाग में पूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को लेकर अपूर्वस्पर्धक करता है - पहले के स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उन्हे अत्यंत रसहीन कर देता है। द्वितीय विभाग में पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों से दलिकों को लेकर अनन्त कृष्टि करता है - उनमें अनन्तगुणा हीन रस करके उन्हें अंतराल से स्थापित कर देता है। कृष्टिकरण के काल के अंत समय में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है। उसी समय में संज्वलन लोभ के बंध का विच्छेद होता है। उसके साथ ही नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का अंत हो जाता है। - इसके बाद दसवां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। उसमें आने पर ऊपर की स्थिति से कुछ कृष्टियों को लेकर सूक्ष्मसंपराय काल के बराबर प्रथम स्थिति को करता है और 'एक समय कम दो' आवलिका में बंधे हुए शेष दलिकों का उपशम करता है। सूक्ष्म संपराय के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है। उसी समय में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की चार, अंतराय की पाँच, यश, कीर्ति और उच्च गोत्र, इन प्रकृतियों के बंध का विच्छेद होता है। अनन्तर समय में ग्यारहवां गुण स्थान उपशान्तकषाय हो जाता है और इस गुणस्थान में मोहनीय की २८ प्रकृतियों का उपशम रहता है।९७९ यद्यपि उपशम श्रेणि में मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का पूरी तरह उपशम किया जाता है, परंतु उपशम कर देने पर भी उस कर्म का अस्तित्व तो बना ही रहता है। जैसे कि गंदे पानी में फिटकरी आदि डालने से पानी की गाद उसके तले में बैठ जाती है और पानी निर्मल हो जाता है, किन्तु उसके नीचे गंदगी ज्यों कि त्यों बनी रहती है। वैसे ही जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप ३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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