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________________ होती है। इसलिये अभिभव कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट कालमान एक वर्ष और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का माना गया है। १८६ कायोत्सर्ग के अनेक प्रकार माने गये हैं - १८७ उच्छ्रित-उच्छ्रित, उच्छ्रितउच्छ्रित-निषण्ण, निषण्ण-उच्छ्रित, निषण्ण, निषण्ण-निषण्ण, निषण्ण-उच्छ्रित, निपन्न (सुप्त), निपन्न-निपन्न। इनमें मुख्य तीन ही शब्द हैं-उच्छ्रित, निषण्ण और निपन्न। इन तीनों के द्रव्य और भाव से चार-चार विकल्प किये जाते हैं। यथा द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित, द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित, द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित। ऐसे ही निषण्ण और निप्पन्न के भी चार चार विकल्प समझना। खड़े-खड़े, बैठे-बैठे अथवा सोये-सोये भी कायोत्सर्ग किया जा सकता है। जैसे कि खड़े-खड़े धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्रवृत्ति करना उच्छ्रित-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। खड़े होकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः उच्छ्रित और धर्म-शुक्लध्यान करना भावतः उच्छ्रित है। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चारों में किसी भी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होना, यह द्रव्यतः उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः उच्छ्रित और ध्यान का अभाव भावतः शून्य है। खड़े होकर आर्त-रौद्र ये दो ध्यान करना द्रव्यतः और भावतः निषण्ण कायोत्सर्ग है। बैठकर धर्म और शुक्ल ध्यान में संलग्न होना निषण्ण उच्छित कायोत्सर्ग है। बैठकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः निषण्ण। धर्म-शुक्ल ध्यान करना भावतः उच्छ्रित। धर्म, शुक्ल अथवा आर्त-रौद्र इन चारों ध्यानों में से किसी भी ध्यान में संलग्न नहीं होना निषण्ण कायोत्सर्ग है। बैठकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः निषण्ण और ध्यान का अभाव भावतः शून्य है। बैठकर आर्त रौद्र ध्यान में संलग्न होना निषण्ण-निषण्ण कायोत्सर्ग है। बैठकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः निषण्ण व आर्त रौद्र ध्यान करना भावतः निषण्ण। सोते-सोते धर्म और शुक्लध्यान में संलग्न होना निपन्न-उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। सोये हुए कायोत्सर्ग करना-द्रव्यतः निपन्न और धर्म-शुक्लध्यान करना-भावतः उच्छ्रित। धर्म, शुक्ल अथवा आर्त, रौद्र इन चार में से किसी भी ध्यान में संलग्न नहीं होना निपन्न कायोत्सर्ग है। सोये हुए कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः निपन्न और ध्यान का अभाव-भावतः शून्या सोये हुए आर्त रौद्र ध्यान में संलग्न होना निपन्न-निपन्न कायोत्सर्ग है। सोये हुए कायोत्सर्ग करना द्रव्यतः निपन्न और आर्त रौद्र ध्यान करना - भावतः निपन्न। इस प्रकार कायोत्सर्ग वाचिक और मानसिक ध्यान का प्रवेश द्वार है। ध्यान और गति संसार परिभ्रमण का नाम गति है। आगम एवं अन्य ग्रन्थों में चार प्रकार की ३१६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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