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________________ समयों को छोड़कर शेष रहे समयों में से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते हैं, वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किये जाने वाले दलिक पहले समय में स्थापित दलिकों से असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरम समय पर्यन्त आगे-आगे के समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक पहले-पहले के समय में स्थापित किये गये दलिकों से असंख्यात गुणे ही अधिक समझना चाहिये। गुणसंक्रमण :- पहले बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंध हो रही शुभ प्रकृतियों में स्थानांतरित कर देना - परिणत कर देना गुण संक्रमण कहलाता है। गुण संक्रमण का क्रम इस प्रकार है - प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृति में संक्रमण होता है, उसकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का संक्रमण होता है, तीसरे में दूसरे की अपेक्षा असंख्यात गुण। इस प्रकार जब तक गुण संक्रमण होता रहता है तब तक पहले-पहले समय में संक्रमण किये गये दलिकों से आगेआगे के समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है। अपूर्व स्थितिबंध :- पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के कमों का बांधना अपूर्व स्थितिबंध कहलाता है। षट् खण्डागम और प्रवचनसारोद्धार में स्थितिघातादि के नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं - गुण श्रेणि निर्जरा, गुण संक्रमण, स्थितिखंडन और अनुभाग खण्डन तथा स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और अपूर्व स्थिति। इन दोनों ग्रन्थों में चार ही प्रकार बताये हैं। यद्यपि स्थितिघात आदि ये पांचों बातें पहले के गुणस्थानों में भी होती है, तथापि आठवें गुणस्थान में ये अपूर्व ही होती हैं। क्योंकि पूर्व गुणस्थानों में अध्यवसायों की जितनी शुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा आठवें गुणस्थान में उनकी शुद्धि अधिक होती है। पहले के गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अत्यल्प रस का घात होता है। परंतु आठवें गुणस्थान में अधिक स्थिति और अधिक रस का घात होता है। इसी प्रकार के पहले के गुणस्थानों में गुण श्रेणि की कालमर्यादा अधिक होती है, तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणि (रचना या स्थापना) की जाती है, वे दलिक अल्प होते हैं, और आठवें गुणस्थान में गुणश्रेणि योग्य दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, किन्तु गुणश्रेणि का कालमान बहुत कम होता है। पहले के गुणस्थानों की अपेक्षा गुण-संक्रमण बहुत कर्मों का होता है। अतएव वह अपूर्व होता है और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्प स्थिति के कर्म बांधे जाते हैं कि जितनी अल्प स्थिति के कर्म पहले के गुणस्थानों में कदापि नहीं बंधते हैं। इस प्रकार इस गुणस्थान में स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इस गुणस्थान को अपूर्वकरण कहते हैं। जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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