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समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक की होती है। उसके बाद वे अप्रमत्तमुनि या तो आठवें गुणस्थान में पहुंचकर उपशम और क्षपक श्रेणी ले लेते हैं, या पुनः छठे गुणस्थान में आ जाते हैं। इस गुणस्थान के दो प्रकार हैं - स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। जब तक जीव दोनों श्रेणी के सन्मुख नहीं होता तब तक उसे स्वस्थानाप्रमत्त कहते हैं। इस गुणस्थान में सर्वज्ञ कथित शुद्ध धर्मध्यान होता है और रूपातीत ध्यान की प्रधानता के कारण अंश रूप से शुक्लध्यान भी होता है। मोहनीय कर्म का उपशम और क्षय करने में तत्पर बना हुआ मुनि दर्शन सप्तक के सिवाय शेष इक्कीस मोहनीय कर्म की प्रकृति का उपशम और क्षय करने वाले श्रेष्ठ ध्यान साधने की प्रक्रिया शुरू करता है। इस गुणस्थानवी जीव में छह आवश्यकादि क्रिया न होने पर भी उत्तम ध्यान के योग से स्वाभाविक आत्मशुद्धि करता रहता है। १७७
(८) नियट्टिबादर (निवृत्तिबादर) गुणस्थान : इसको अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहते हैं। अध्यवसाय, परिणाम, निवृत्ति - ये तीनों समानार्थवाचक शब्द हैं, जिसमें अप्रमत्त आत्मा की अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीनों कषाय चतुष्क रूपी बादर कषाय की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं।
दोनों श्रेणियों का प्रारंभ यद्यपि नौवें गुणस्थान से होता है, किन्तु उनकी आधारशिला इस गुणस्थान में रखी जाती है। आठवां गुणस्थान दोनों प्रकार की श्रेणियों की आधार शिला बनाने के लिए है- उपशमन और क्षपण की योग्यता मात्र होती है और नौवें गुणस्थान में श्रेणियां प्रारंभ होती हैं। आठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है। वे ये हैं - १) स्थितिघात, २) रसघात, ३) गुणश्रेणि, ४) गुणसंक्रमण और ५) अपूर्व स्थितिबंध।
स्थितिघात :- कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देना-जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत समयों से हटा देना स्थितिघात कहलाता है।
रसघात :- बंधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द कर देना रस घात कहलाता है।
गुणश्रेणि :- जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया जाता है अथवा जो कर्मदलिक अपने-अपने उदय के नियत समयों से हटाये जाते हैं, उनको समय के क्रम से अन्तर्मुहर्त में स्थापित कर देना गुण श्रेणि कहलाता है। स्थापित करने का क्रम इस प्रकार है - उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त के जितने समय होते हैं उनमें से उदयावलि के
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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