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उपासक पडिमा, एवं बारह व्रत धारक होने से पंचम गुणस्थान में धर्म ध्यान मध्यम कोटि का होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट कुछ न्यून करोड़ वर्ष की होती है । १७५ इससे आगे के सभी गुणस्थानों की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
(६) प्रमत्त संयत गुणस्थान: जो जीव पापजनक व्यापारों से विधि पूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं; वे संयत (मुनि) हैं। लेकिन संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तब तक वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। यद्यपि सकल संयम को रोकनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने से इस गुणस्थानवर्ती जीव को पूर्ण संयम तो होता है, किन्तु संज्वलन आदि कषायों के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाले प्रमाद के रहने से इसे प्रमत्त संयत कहते हैं। इस गुणस्थान में देशविरति की अपेक्षा गुणों - विशुद्धि का प्रकर्ष अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा विशुद्धि - गुण का अपकर्ष होता है। इसमें ही चतुर्दश पूर्वधारी मुनि आहारक लब्धि का प्रयोग करते हैं। प्रमत्त संयतगुणस्थानक की स्थिति
न्य से एक समय और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व से कुछ प्रमाण है और यह तथा इससे आगे गुणस्थान मनुष्यगति के जीवों के ही होते हैं। इसमें प्रत्याख्यानी कषायचतुष्क का बंध नहीं होता। इस गुणस्थानवर्ती जीव की स्थिति का वर्णन तो कर चुके हैं। किन्तु कहीं कहीं इसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त बताई है। अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रमत्तसंयमी एक बार अप्रमत्तगुणस्थान में पहुंचता है और पुनः वहाँ से अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रमत्तसंयतगुणस्थान में आ जाता है। यह उतार चढ़ाव देशोनकोटिपूर्व तक होता रहता है। इसमें धर्मध्यान की मात्रा बढ़ जाती है। १७६
(७) अप्रमत्तसंयतगुणस्थान : जो संयत (मुनि) विकथा, कषाय आदि प्रमादों का सेवन नहीं करते हैं, वे अप्रमत्त संयत हैं और उनका स्वरूप विशेष जो ज्ञानादि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के तरतम भाव से होता है, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहलाता है। इसमें संज्वलन कषाय चतुष्क तथा हास्यादि नो कषायों का मन्द उदय होने से व्यक्ताव्यक्त प्रमाद नष्ट हो जाता है और ज्ञान, ध्यान, तप, में लीन मुनि को अप्रमत्तसंयत कहते हैं। प्रमाद के सेवन से ही आत्मा गुणों की शुद्धि से गिरता है। इसके आगे के सभी गुणस्थानों में मुनि अपने स्वरूप में अप्रमत्त ही रहते हैं। छठे और सातवें गुणस्थान में इतना ही अन्तर है कि सातवें गुणस्थान में थोड़ासा भी प्रमाद नहीं होता है, इसलिये व्रत में अतिचारादिक सम्भव नहीं है, किन्तु छठा गुणस्थान प्रमाद युक्त होने से व्रतों में अतिचार लगने की संभावना है। ये दोनों गुणस्थान प्रत्येक समय नहीं होते हैं। किन्तु गति सूचक यन्त्र की सूई की तरह अस्थिर रहते हैं। कभी सातवें से छठा और छठे से सातवां गुणस्थान क्रमशः होते रहते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की समय स्थिति जघन्य से एक
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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