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________________ कि तिर्यचत्रिक- तिर्यचगति तिर्यंचायु तिथंचानुपूर्वी, स्त्यानद्धित्रिक- निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि, दुर्भगत्रिक - दुर्भग नाम, दुःस्वर नाम व अनादेय नाम कर्म, अनन्तानुबन्धीचतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ, मध्यमसंस्थान चतुष्क - न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, वामन संस्थान व कुब्ज संस्थान, मध्यम संहनन चतुष्क - वृषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन और कीलिका संहनना १७३ पहले की २१ प्रकृति और आगे ६ प्रकृति - १) नीच गोत्र २) उद्योत नाम ३) अशुभ विहायोगति ४) स्त्रीवेद ५) मनुष्यायु ६) देवायु. प्रथम गुणस्थानवी जीव एकान्तमिथ्यावादी होते हैं, दूसरे गुण स्थानवी जीव अपक्रान्तिवाले होते हैं और तीसरे गुणस्थानवी जीव अपक्रान्ति और उत्क्रान्ति दोनों ही प्रकार वाले होते हैं। इन तीन गुणस्थानों में ध्यान तो है ही किन्तु आर्त - रौद्र ध्यान है, जो संसारवर्धक है। (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (असंयतसम्यग्दृष्टि) गुणस्थान : सर्वज्ञ कथित तत्त्वों के विषय में स्वाभाविक (निसर्ग) और उपदेशादि से जीव को रुचि तो जागृत होती है किन्तु द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय होने से व्रत प्रत्याख्यान रहित अकेले सम्यक्त्व मात्र रहता है, उस जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं और उसके स्वरूप विशेष को अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं । यह अवस्था अर्धपुद्गल परावर्त जितना संसार भ्रमण शेष रहे तब ही प्राप्त होती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति भव्य जीवों को होती है अभव्य जीवों को नहीं। इस गुणस्थानवी जीव में व्रतादि न होने पर भी देव, गुरु, धर्म, संघ भक्ति, शासन सेवा की भावना दृढ़ होती है। इसमें जीव तीर्थकर नामकर्म का बंध करता है। जीव को ध्यान करने की योग्यता भी यहां से प्रारंभ होती है। अतः यह ध्यान को जन्म देने वाला उद्गम स्थान है।१७४ (५) देशविरति (विरताविरति - संयतासंयत)गुणस्थान : प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के कारण जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा तो नहीं किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने के कारण देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से अलग हो सकते हैं, वे देशविरत कहलाते हैं। देशविरत को श्रावक भी कहते हैं। एक ही समय में जीव त्रसहिंसा से विरत होता है, वही स्थावर हिंसा से अविरत होता है, इस कारण से विरताविरति भी कहते हैं। षट् खण्डागम में इसे संयतासंयत कहा है। इनका स्वरूप विशेष देशविरत गुणस्थान है। इस गुणस्थानवी जीव के निम्नलिखित दस प्रकृतियों का बंध नहीं होता - वज्रऋषभ संहनन, मनुष्यगति, मनुष्यायु, मनुष्यानुपूर्वी, अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग। इसमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान मंद होता है। श्रावक षट् कर्म (षड् आवश्यक क्रिया) ११ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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