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________________ के प्रभाव से विपर्यासमति (मिथ्यामति) द्वारा शुद्ध को अशुद्ध, सत्य को असत्य, निर्मल को मलिन एवं कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को सुदेव, सुगुरु, सुधर्म के रूप में प्रतिभासित करने वाली अवस्था मिथ्यात्व की मानी जाती है। मिथ्यात्व दो प्रकार का माना जाता है - व्यक्त मिथ्यात्व और अव्यक्त मिथ्यात्व। अनादिकाल से संबंध रखने वाला अव्यक्त मिथ्यात्व है। इसे गुणस्थान की कोटि में नहीं रखा जाता। मिथ्यात्व मदिरा के समान जीव को हिताहित का भान नहीं करने देता। व्यक्त मिथ्यात्व को ही प्रथम गुणस्थान में लिया गया है। इसमें दृष्टि अशुद्ध होती है फिर भी जीवों के भद्र परिणामों एवं सरल प्रवृत्ति के कारण मिथ्यादृष्टि की भूमिका को भी प्रथम गुणस्थान में निर्धारित किया गया है। इसमें सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, आहारक द्विक (आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग) और तीर्थंकर नाम कर्म इन पांच प्रकृतियों का बंध नहीं होता।१७१ (२) सासादन (सास्वादन) गुणस्थान : जो औपशमिक सम्यक्त्वी जीव अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, किन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, तब तक - जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यन्त सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है और उस जीव के स्वरूप विशेष को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव सास्वादन सम्यग्दृष्टि हो सकता है, दूसरा नहीं। इस गुण स्थान की समय स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका तक की है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के निमित्त बंधने वाली सोलह - नरकत्रिक - नरकगति, नरकायु, नरकानुपूर्वी, जाति चतुष्क - एकेन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय, स्थावरचउ - स्थावर नाम कर्म, सूक्ष्म नाम कर्म, अपर्याप्त नाम कर्म, साधारण नाम कर्म, हुण्डक संस्थान, आतप नाम कर्म, सेवा संहनन नामकर्म, नपुंसक वेद और मिथ्यात्व इन प्रकृतियों का बंध नहीं होता।१७२ . (३) सम्यग् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान : मिथ्यात्व मोहनीय के अशुद्ध, अर्द्धशुद्ध और शुद्ध इन तीनों पुंजों में से अनन्तानुबंधी कषाय का उदय न होने से शुद्धता और मिथ्यात्व के अर्द्ध शुद्ध पुद्गलों के उदय होने से अशुद्धता रूप जब अर्द्ध शुद्ध पुंज का उदय होता है, तब जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्यात्व (अशुद्ध) मिश्र हो जाती है। इसी से वह जीव सम्यग्मिथ्या दृष्टि (मिश्र दृष्टि) तथा उसका स्वरूप विशेष सम्यग्मिथ्या दृष्टि गुणस्थान कहलाता है। इस गुणस्थानवी जीव की स्थिति नारियेलकेर द्वीप के मनुष्य की तरह होती है। इसमें जीव की विशेष अवस्था यह है कि वह इस गुण स्थान में आयुबंध अथवा मरण नहीं करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि परिणामों को प्राप्त करके ही मरता है, जिसके परिणामस्वरूप सद्गति अथवा दुर्गति को प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में स्थित जीव निम्नलिखित सत्ताईस प्रकृतियों का बंध नहीं करता, जैसे जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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