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________________ हैं - दर्शन मोह और चारित्र मोह। इनमें से प्रथम शक्ति आत्मा को दर्शन - स्वरूप - पररूप का निर्णय, विवेक नहीं होने देती है। दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं करने देती है। इसीलिये पहले, दूसरे, और तीसरे गुणस्थान में आत्मा की दर्शन और चारित्र शक्ति का विकास नहीं हो पाता है क्योंकि उनमें उनके प्रतिबंधक कारणों की अधिकता रहती है। चतुर्थ आदि गुणस्थानों में से प्रतिबंधक संस्कार मंद होते जाते हैं जिससे उन-उन गुणस्थानों में शक्तियों के विकास का क्रम प्रारंभ हो जाता है। इन प्रतिबंधक संस्कारों को कषाय कहते हैं। इन कषायों के मुख्यतः चार विभाग किये गये हैं। ये विभाग काषायिक संस्कारों की फल देने की तरतम शक्ति पर आधारित हैं। इनमें से प्रथम विभाग दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय का है। यह विभाग दर्शनशक्ति का प्रतिबंधक है। शेष तीन विभाग जिन्हें क्रमशः अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते हैं, चारित्रशक्ति के प्रतिबंधक है। प्रथम विभाग की तीव्रता रहने पर दर्शनशक्ति का आविर्भाव नहीं होता है, किन्तु जैसे-जैसे मन्दता या अभाव की स्थिति बनती है, वैसे दर्शनशक्ति व्यक्त होती है। दर्शन शक्ति के व्यक्त होने पर दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी कषाय का वेग शांत या क्षय हो जाने से चतुर्थ गुणस्थान के अन्त में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार नहीं रहता है। जिससे पांचवें गुणस्थान में चारित्रशक्ति का प्राथमिक विकास होता है। इसके अनन्तर पांचवें गुणस्थान के अंत में प्रत्याख्यानावरण कषाय का वेग न रहने से चारित्र शक्ति का विकास और बढ़ता है जिससे इन्द्रिय विषयों से विरक्त होने पर जीव साधु बन जाता है। यह विकास की छठ्ठी भूमिका है। इस भूमिका में चारित्र की विपक्षी संज्वलन कषाय के विद्यमान रहने से चारित्र पालन में विक्षेप तो आता ही है, किन्तु चारित्रशक्ति का विकास दबता नहीं है। शुद्धि और स्थिरता में अंतराय आते रहते हैं और आत्मा उन विघातक कारणों से संघर्ष भी करती रहती है। इस संघर्ष में सफलता प्राप्त कर जब संज्वलन कषायों (संस्कारों) को दबाती हुई आत्मा विकास की ओर गतिशील रहती है, तब सातवें आदि गुणस्थानों को लांघकर बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाती है। बारहवें गुणस्थान में तो दर्शन शक्ति और चारित्र शक्ति के विपक्षी संस्कार सर्वथा क्षय हो जाते हैं, जिससे दोनों शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। उस स्थिति में शरीर, आय आदि का संबंध रहने से जीवन्मुक्त अरिहन्त अवस्था प्राप्त हो जाती है और बाद में शरीर आदि का भी वियोग हो जाने पर शुद्ध, ज्ञान, दर्शन आदि शक्तियों से सम्पन्न आत्मावस्था प्राप्त हो जाती है। ध्यान और गुणस्थानों का स्वरूप (१) मिथ्यात्व गुणस्थान : दर्शन मोहनीय के आधार पर ही प्रथम गुणस्थान का नाम मिथ्यात्व गुणस्थान रखा है। यह चेतन की अधस्तम अवस्था है। दर्शन मोहनीय २९८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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